"हलाल की मुर्गी / राम सेंगर" के अवतरणों में अंतर
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− | यह हलाल की मुर्गी | + | यह हलाल की मुर्गी कब तक |
− | कब तक | + | ख़ैर मनाए जान की । |
− | कब गर्दन पर पड़े गँड़ासा | + | कब गर्दन पर पड़े गँड़ासा |
− | + | मर्ज़ी है भगवान की । | |
− | धर्म न नैतिकता सत्ता की | + | |
− | बजे | + | धर्म न नैतिकता सत्ता की |
− | जनादेश के ढोल-मजीरे | + | बजे हुक़्मनामों की तूती । |
− | जनता यहाँ पाँव की जूती | + | जनादेश के ढोल-मजीरे |
− | दिए-लिए की पंचायत है | + | जनता यहाँ पाँव की जूती । |
− | + | दिए-लिए की पंचायत है | |
− | पगड़ी उछले है | + | पौबारह परधान की । |
− | न्याय अमीरों की रखैल है | + | |
− | लोकतंत्र फूहड़ | + | पगड़ी उछले है ग़रीब की |
− | वही जुआ है, वही बैल है | + | न्याय अमीरों की रखैल है । |
− | बात कहाँ रह गई आज वह | + | लोकतंत्र फूहड़ मज़ाक़ है |
− | दया-धर्म-ईमान | + | वही जुआ है , वही बैल है । |
− | जो जीता सो वही | + | बात कहाँ रह गई आज वह |
− | शोभापुरुषों की दिल्ली है | + | दया-धर्म-ईमान की । |
− | सूझेगी न | + | |
− | + | जो जीता सो वही सिकन्दर | |
− | पाँच साल की अधम चराई | + | शोभापुरुषों की दिल्ली है । |
− | + | सूझेगी न मसख़री क्योंकर | |
− | + | डण्डे पर उनके गिल्ली है । | |
− | + | पाँच साल की अधम चराई | |
− | धरती माता बोझ | + | फ़िक्र किसे इनसान की । |
− | चलती | + | |
− | + | लड़ें साँड़ बारी का भुरकस | |
− | खिड़की नए विहान | + | गुड़-गोबर हो गई तरक्की । |
− | नौ कनौजिया, | + | धरती माता बोझ सम्भाले |
− | ताना-बाना | + | चलती जाए समय की चक्की । |
− | तवा-तगारी बिन भटियारी | + | बन्द पड़ी है जाने कब से |
− | बाजी ताँत, राग पहचाना | + | खिड़की नए विहान की । |
− | + | ||
− | भाषा है शैतान | + | नौ कनौजिया, नब्बे चूल्हे, |
− | नीम-बकायन दोनों कड़वे | + | ताना-बाना, सूत पुराना । |
− | भ्रम मिठास का टूट रहा | + | तवा-तगारी बिन भटियारी |
− | + | बाजी ताँत, राग पहचाना । | |
− | कुत्ता जिस पर मूत रहा है। | + | गुण्डे सब काबिज़ मँचों पर |
− | दृश्य | + | भाषा है शैतान की । |
− | रौनक इत्मीनान | + | |
+ | नीम-बकायन दोनों कड़वे | ||
+ | भ्रम मिठास का टूट रहा है । | ||
+ | महज़ ठूँठ रह गई व्यवस्था | ||
+ | कुत्ता जिस पर मूत रहा है। | ||
+ | दृश्य फ़लक पर गहन अन्धेरा | ||
+ | रौनक इत्मीनान की । | ||
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21:29, 23 नवम्बर 2023 के समय का अवतरण
यह हलाल की मुर्गी कब तक
ख़ैर मनाए जान की ।
कब गर्दन पर पड़े गँड़ासा
मर्ज़ी है भगवान की ।
धर्म न नैतिकता सत्ता की
बजे हुक़्मनामों की तूती ।
जनादेश के ढोल-मजीरे
जनता यहाँ पाँव की जूती ।
दिए-लिए की पंचायत है
पौबारह परधान की ।
पगड़ी उछले है ग़रीब की
न्याय अमीरों की रखैल है ।
लोकतंत्र फूहड़ मज़ाक़ है
वही जुआ है , वही बैल है ।
बात कहाँ रह गई आज वह
दया-धर्म-ईमान की ।
जो जीता सो वही सिकन्दर
शोभापुरुषों की दिल्ली है ।
सूझेगी न मसख़री क्योंकर
डण्डे पर उनके गिल्ली है ।
पाँच साल की अधम चराई
फ़िक्र किसे इनसान की ।
लड़ें साँड़ बारी का भुरकस
गुड़-गोबर हो गई तरक्की ।
धरती माता बोझ सम्भाले
चलती जाए समय की चक्की ।
बन्द पड़ी है जाने कब से
खिड़की नए विहान की ।
नौ कनौजिया, नब्बे चूल्हे,
ताना-बाना, सूत पुराना ।
तवा-तगारी बिन भटियारी
बाजी ताँत, राग पहचाना ।
गुण्डे सब काबिज़ मँचों पर
भाषा है शैतान की ।
नीम-बकायन दोनों कड़वे
भ्रम मिठास का टूट रहा है ।
महज़ ठूँठ रह गई व्यवस्था
कुत्ता जिस पर मूत रहा है।
दृश्य फ़लक पर गहन अन्धेरा
रौनक इत्मीनान की ।