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हिन्दी कविता में जिसे नवें दशक से अभिहित करने की कोशिशें हुईं, उसके कई अब के उल्लेखनीय कवियों की पृष्ठभूमि के केन्द्र में पहले का सांस्कृतिक शहर इलाहाबाद रहा। आशय यह कि तब के कवियों की जनपदीयता भले किंचित् भिन्न रही हो लेकिन उनकी युवा-चेतना और संवेदना का नाभिक अब का प्रयागराज ही रहा। स्वाभाविक रूप से इस कविता पर अस्सी के दशक का प्रभाव और दबाव शुरुआती दौर में दिखा किन्तु कालान्तर में आए वैश्विक परिवर्तनों के मद्देनजर इसने अपने काव्य-प्रत्यय और मुहावरे अर्जित करने और उन्हें विकसित करने की प्रतिज्ञाएं ठानीं और जैसा कि हिन्दी समाज एवं साहित्य के साथ अक्सर होता रहा है, बाद में इसे प्रायोजित ढंग से ‘लांग नाइन्टीज’ इत्यादि सिद्धान्तों से जोड़ने की जी-जान से किन्तु असफल कोशिशें भी हुईं, जिनकी तफसील में जाना यहाँ बेमतलब है। इसे महज संयोग नहीं माना जा सकता कि उन्हीं दिनों इलाहाबाद से ही एक अनियतकालीन किन्तु कविता-केन्द्रित पत्रिका ‘उन्नयन’ की शुरुआत हुई जिसके हरेक अंक में संपादक श्रीप्रकाश मिश्र ने अपनीटिप्पणी के साथ ‘जिनसे उम्मीद है’ नामक स्तम्भ जारी किया। इसके अन्तर्गत उन्होंने उभरते हुए कवियों को शामिल किया और इसी शृंखला में पहली बार मेरा सामना हरिश्चन्द्र पाण्डेय की कुछ इकट्ठी कविताओं से हुआ। उनकी कविताओं का यह प्रथम पाठ ही इतना अमिट रहा, उनका मर्म, वस्तुबोध और सौन्दर्य बोध पर इतना प्रभावी रहा, उनकी काव्यदृष्टि और संवेदना इतनी विरल प्रतीत हुई कि व्यक्तिगत रूप से मैं क्रमशः उनकी कविता का एक प्रेमी-पाठक बनता गया।
उक्त परिदृश्य में दो महत्त्वपूर्ण कवि ऐसे रहे जिन्हें अस्सी-नव्बे करने वालों ने लगातार अनदेखा किया। दिनेश कुमार शुक्ल और हरिश्चन्द्र पाण्डेय। इसी में तीसरे संजय चतुर्वेदी को भी रखा जा सकता है। ये कवियों, आलोचकों, लेखकों या साहित्य की जमात से बाहर के किन्तु असली कवि रहे। इन्हें वैसी केन्द्रीयता न मिल सकी जिसके वे हकदार रहे। वैसे दिनेश कुमार शुक्ल और हरिश्चन्द्र पाण्डेय की कविता के फलक और काव्यशिल्प में आत्यंतिक रूप से मौलिक अन्तर है। दिनेश शुक्ल की कविता में स्पन्दन, आन्तरिक लय और भाषा कुछ और है तो हश्चिंद्र में कुछ और। लेकिन काव्यकर्म की उभयता करीब-करीब एक समान है। ये दोनोंअस्सी-नब्बे को अधिकाधिक पास लाने और पारस्परिक बनने वाले ऐसे प्रतिनिधि कवि हैं जिनसे प्रेरित आज तक की कविता का आकाश विस्तृत होता है और जमीन बहुव्यापिनी। फिलहाल, आठवें दशक की कविता का सचेतन प्रभाव नवें दशक पर कई रूपों में पड़ा। आरंभिक रूप में प्रतिरोध की सैद्धान्तिक वैचारिकी ने नवें दशक के नवोदित कवियों पर इस कदर प्रभाव डाला कि बचपन भी इसके अतिरेक से अछूता नहीं रहा। कहीं ‘पिपिहरी’ से ‘तूर्य की आवाज’ आने लगी तो कहीं खेल-खेल में ‘आइस-पाइस’ से ‘मौत को भी देखकर’ चिद्दित कर लेने की कल्पना; तो कहीं ‘कॉपी से कागज फाड़कर जहाज बना लेने’ की कामनाएँ प्रकट हुईं। काग़ज़ के इस जहाज़ के साथ हरिश्चंद्र पाण्डेय जैसे धीर-संवेदन वाले कवि, ‘बेटी जहाज़ हो गई थी ?’ की थीम को लेकर चले आ रहे थे। यहाँ बेटी ओर जहाज़ एकसाथ आकर हमारे समय की कविता की प्रस्तावना तैयार कर रहे थे। मतलब हरिश्चंद्र की कविता में अगर कोई ‘उड़ान’ भी है तो उसमें रोर या शोर कथमपि नहीं।
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