"बाधाओं से हारते / सुरंगमा यादव" के अवतरणों में अंतर
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− | + | '''बाधाओं से हारते,''' कर्महीन इंसान। | |
− | + | अथ से पहले अंत का,कर लेते अनुमान।। | |
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+ | दर्द दिया तुमने हमें, किया बहुत उपकार।। | ||
+ | गिरकर उठने का हुनर, सिखा दिया है यार।। | ||
+ | 29 | ||
+ | कपट बुराई ना छिपें, कितने करो उपाय। | ||
+ | जल में बैठी रेत ज्यों, हिलते ही उतराय।। | ||
+ | 30 | ||
+ | रंगों की वर्षा करे, होली बारह मास। | ||
+ | मन की डाली पर सदा, खिला रहे मधुमास।। | ||
+ | 31 | ||
+ | नेह रंग बरसा सखी,कोरे मन पर आज। | ||
+ | रंग सभी फींके लगें, क्या है इसका राज़।। | ||
+ | 32 | ||
+ | फागुन आया मदभरा, मौसम हुआ हसीन। | ||
+ | इठलाता यौवन हुआ, रंग बिना रंगीन।। | ||
+ | 33 | ||
+ | कहना था हमको बहुत, ढूँढ़े शब्द हजार। | ||
+ | बात जुबां पर रुक गई, देखो फिर इस बार।। | ||
+ | 34 | ||
+ | ले आये मझधार में, हमें पकड़ कर हाथ। | ||
+ | सिखलाया ना तैरना, छोड़ चले तुम साथ।। | ||
+ | 35 | ||
+ | माँ ममता की राशि है, उसके मीठे बोल। | ||
+ | तुला न ऐसी है कहीं, तोल सके जो मोल।। | ||
+ | 36 | ||
+ | शब्दों पर बंदिश लगी,सच पर कसी लगाम। | ||
+ | खरी बात बोली अगर, संकट ही परिणाम।। | ||
+ | 37 | ||
+ | द्वेष- घृणा का हो गया, चहुँ दिशि राज़ समाज। | ||
+ | दया प्रेम बंदी खड़े, हाथ जोड़कर आज।। | ||
+ | 38 | ||
+ | जीर्ण पुरातन त्याग दो, मधु ऋतु आयी द्वार। | ||
+ | नव पल्लव नव सुमन की, शोभा ज़रा निहार।। | ||
+ | 39 | ||
+ | न्याय नीति की बात का, रहा न कोई ख्याल। | ||
+ | बिछी बिसातें हर जगह, पग- पग फैला जाल।। | ||
+ | 40 | ||
+ | अति की चिंता ना भली, समुचित है वरदान। | ||
+ | चिंता चिंतन जो बने, राह करें आसान।। | ||
+ | 41 | ||
+ | झूठ देर तक ना छिपे, देता आप प्रमाण। | ||
+ | जैसे चेचक छोड़ती,एक न एक निशान।। | ||
+ | 42 | ||
+ | पल में आँखें फेर लीं,अपने थे जो खास। | ||
+ | जब तक सुख की छाँव थी,रहे तभी तक पास।। | ||
+ | 43 | ||
+ | आज किसे अपना कहें, किसको माने गैर। | ||
+ | संबंधों में बढ़ रहा, देखो कितना बैर।। | ||
+ | 44 | ||
+ | नारी को देवी कहें, कहें गुणों की खान। | ||
+ | फिर भी नित अपमान का,करती वह विषपान।। | ||
+ | 45 | ||
+ | नारी को देवी कहें, करते नित अपमान। | ||
+ | पहले मानो मानवी, फिर करना गुणगान।। | ||
+ | 46 | ||
+ | नारी नर की सहचरी, प्रेम दया का रूप। | ||
+ | नारी के सम्मान बिन, घर है अंधाकूप।। | ||
+ | 47 | ||
+ | समझे नारी हीन है, लिया बपौती मान। | ||
+ | आज उन्हीं के सामने, लेकर खड़ी कमान।। | ||
+ | 48 | ||
+ | पथ पथरीला हो भले, कभी न माने हार। | ||
+ | आँसू पीकर भी हँसे, देती सब सुख वार।। | ||
+ | 49 | ||
+ | नारी नर से कम नहीं,अब तो लो ये मान। | ||
+ | उसके भी सम्मान का,रहे सभी को ध्यान।। | ||
+ | 50 | ||
+ | नारी बढ़ती तुम चलो,मन में लो ये ठान। | ||
+ | खुद अपने अस्तित्त्व को, देनी है पहचान।। | ||
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10:15, 23 जनवरी 2024 के समय का अवतरण
27
बाधाओं से हारते, कर्महीन इंसान।
अथ से पहले अंत का,कर लेते अनुमान।।
28
दर्द दिया तुमने हमें, किया बहुत उपकार।।
गिरकर उठने का हुनर, सिखा दिया है यार।।
29
कपट बुराई ना छिपें, कितने करो उपाय।
जल में बैठी रेत ज्यों, हिलते ही उतराय।।
30
रंगों की वर्षा करे, होली बारह मास।
मन की डाली पर सदा, खिला रहे मधुमास।।
31
नेह रंग बरसा सखी,कोरे मन पर आज।
रंग सभी फींके लगें, क्या है इसका राज़।।
32
फागुन आया मदभरा, मौसम हुआ हसीन।
इठलाता यौवन हुआ, रंग बिना रंगीन।।
33
कहना था हमको बहुत, ढूँढ़े शब्द हजार।
बात जुबां पर रुक गई, देखो फिर इस बार।।
34
ले आये मझधार में, हमें पकड़ कर हाथ।
सिखलाया ना तैरना, छोड़ चले तुम साथ।।
35
माँ ममता की राशि है, उसके मीठे बोल।
तुला न ऐसी है कहीं, तोल सके जो मोल।।
36
शब्दों पर बंदिश लगी,सच पर कसी लगाम।
खरी बात बोली अगर, संकट ही परिणाम।।
37
द्वेष- घृणा का हो गया, चहुँ दिशि राज़ समाज।
दया प्रेम बंदी खड़े, हाथ जोड़कर आज।।
38
जीर्ण पुरातन त्याग दो, मधु ऋतु आयी द्वार।
नव पल्लव नव सुमन की, शोभा ज़रा निहार।।
39
न्याय नीति की बात का, रहा न कोई ख्याल।
बिछी बिसातें हर जगह, पग- पग फैला जाल।।
40
अति की चिंता ना भली, समुचित है वरदान।
चिंता चिंतन जो बने, राह करें आसान।।
41
झूठ देर तक ना छिपे, देता आप प्रमाण।
जैसे चेचक छोड़ती,एक न एक निशान।।
42
पल में आँखें फेर लीं,अपने थे जो खास।
जब तक सुख की छाँव थी,रहे तभी तक पास।।
43
आज किसे अपना कहें, किसको माने गैर।
संबंधों में बढ़ रहा, देखो कितना बैर।।
44
नारी को देवी कहें, कहें गुणों की खान।
फिर भी नित अपमान का,करती वह विषपान।।
45
नारी को देवी कहें, करते नित अपमान।
पहले मानो मानवी, फिर करना गुणगान।।
46
नारी नर की सहचरी, प्रेम दया का रूप।
नारी के सम्मान बिन, घर है अंधाकूप।।
47
समझे नारी हीन है, लिया बपौती मान।
आज उन्हीं के सामने, लेकर खड़ी कमान।।
48
पथ पथरीला हो भले, कभी न माने हार।
आँसू पीकर भी हँसे, देती सब सुख वार।।
49
नारी नर से कम नहीं,अब तो लो ये मान।
उसके भी सम्मान का,रहे सभी को ध्यान।।
50
नारी बढ़ती तुम चलो,मन में लो ये ठान।
खुद अपने अस्तित्त्व को, देनी है पहचान।।