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"रह गया ठूँठ, कहाँ अब वो शज़र बाकी है / 'सज्जन' धर्मेन्द्र" के अवतरणों में अंतर
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रात कुछ ओस क्या मरुथल में गिरी, अब दिन भर, | रात कुछ ओस क्या मरुथल में गिरी, अब दिन भर, | ||
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तेरी आँखों के जज़ीरों पे ही दम टूट गया, | तेरी आँखों के जज़ीरों पे ही दम टूट गया, |
10:15, 26 फ़रवरी 2024 के समय का अवतरण
रह गया ठूँठ, कहाँ अब वो शजर बाकी है।
अब तो शोलों को ही होनी ये ख़बर बाकी है।
है चुभन तेज़ बड़ी, रो नहीं सकता फिर भी,
मेरी आँखों में कहीं रेत का घर बाकी है।
रात कुछ ओस क्या मरुथल में गिरी, अब दिन भर,
आँधियाँ अग्नि की बोले हैं कसर बाकी है।
तेरी आँखों के जज़ीरों पे ही दम टूट गया,
पार करना अभी ज़ुल्फ़ों का भँवर बाकी है।
है बड़ा तेज़ कहीं तू भी न मर जाए सनम,
आ मेरे पास तेरे लब पे ज़हर बाकी है।