भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"मेरा माथा उबलती धूप छू के लौट जाती है / 'सज्जन' धर्मेन्द्र" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र |संग्रह=ग़ज़ल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
छो |
||
पंक्ति 9: | पंक्ति 9: | ||
सवेरे रोज़ सूरज को मेरी माँ जल चढ़ाती है। | सवेरे रोज़ सूरज को मेरी माँ जल चढ़ाती है। | ||
− | कहीं भी मैं रहा पर आजतक भूखा नहीं सोया, | + | कहीं भी मैं रहा पर आजतक भूखा नहीं सोया, |
मेरी माँ एक रोटी गाय की हर दिन पकाती है। | मेरी माँ एक रोटी गाय की हर दिन पकाती है। | ||
10:17, 26 फ़रवरी 2024 के समय का अवतरण
मेरा माथा उबलती धूप छू के लौट जाती है।
सवेरे रोज़ सूरज को मेरी माँ जल चढ़ाती है।
कहीं भी मैं रहा पर आजतक भूखा नहीं सोया,
मेरी माँ एक रोटी गाय की हर दिन पकाती है।
पसीना छूटने लगता है सर्दी का यही सुनकर,
अभी तक गाँव में हर साल माँ स्वेटर बनाती है।
नहीं भटका हूँ मैं अब तक अमावस के अँधेरे में,
मेरी माँ रोज़ रब के सामने दीपक जलाती है।
सदा ताज़ी हवा आके भरा करती है मेरा घर,
नया टीका मेरी माँ रोज़ पीपल को लगाती है।