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"ज़ुबाँ मिली पर कभी नहीं कुछ कहता है जूता / 'सज्जन' धर्मेन्द्र" के अवतरणों में अंतर
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आजीवन घर के बाहर ही रहता है जूता। | आजीवन घर के बाहर ही रहता है जूता। | ||
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13:06, 26 फ़रवरी 2024 के समय का अवतरण
ज़बाँ मिली पर कभी नहीं कुछ कहता है जूता।
इसीलिए पैरों के नीचे रहता है जूता।
विरोध इसका मर जाता कुछ दिन में इसीलिए
जीवन भर आक़ा की लातें सहता है जूता।
पाँवों की रक्षा करते-करते फट जाता, पर,
आजीवन घर के बाहर ही रहता है जूता।
भूल वफ़ादारी इसकी सब देते फेंक इसे,
बूढ़ा होकर जब मुँह से कुछ कहता है जूता।
अंत समय कचरे में जलता या फिर सड़ने तक,
नाले के गंदे पानी में बहता है जूता।
कैसे लिख दूँ शे’र आख़िरी जूते के हक़ में,
जीवन भर हर हक़ से वंचित रहता है जूता।