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हक़ीक़त देखकर, मन की अक़ीदत काँप जाती है
जहां की देखकर नफ़रत मुहब्बत काँप जाती है
खड़े दो-चार लोगों को इकट्ठा देख भी ले तो
बड़ी बेचैन होती है, हुकूमत काँप जाती है
हमारी ख़्वाहिशों पर हमने पहरे डाल रक्खे हैं
ज़रा बढ़ती हैं तो घर की ज़रूरत काँप जाती है
बताओ भेड़ों जैसी एकता से क्या बदल लेंगे
जहाँ होती ज़रूरत है तो हिम्मत काँप जाती है
जिसे क़ुदरत ने अपने प्यारे हाथों से बनाया था
उसी की देख के हरकत ये कुदरत काँप जाती है
वो पहले खिड़कियों से रोज़ ही आकाश है तकती
फिर अपने पंखों को पाकर हताहत, काँप जाती है
कभी आते नहीं उसके दबे अल्फ़ाज़ होठों पर
मगर जब देखती है आख़िरी ख़त, काँप जाती है