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लेखिका: [[सुभद्राकुमारी चौहान]]{{KKGlobal}}[[Category:कविताएँ]]{{KKRachna[[Category:|रचनाकार=सुभद्राकुमारी चौहान]]}}{{KKCatKavita}}{{KKVID|v=hLKO9hk4ukY&t=1s}}{{KKPrasiddhRachna}}<poem>बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी। गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद। कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?
बारऊँच-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।<br>नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी? गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥<br><br>बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥
चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।<br>किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया। कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?<br><br>किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥
ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?<br>बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी रोना और चीथड़ों में रानी॥<br><br>मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे। बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥
किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।<br>मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया। किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥<br><br>झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥
रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।<br>दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे। बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥<br><br>धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥
वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं रोईमतवाली बड़ी हुई। लुटी हुई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।<br>झाड़-पोंछ कर चूमकुछ ठगी हुई-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥<br><br>सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥
दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।<br>लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी। धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥<br><br>तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥
वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।<br>लुटी हुई, कुछ ठगी हुईदिल में एक चुभन-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥<br><br>थी यह दुनिया अलबेली थी। मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥
लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।<br>मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने। तान रसीली थी कानों अरे! जवानी के फंदे में चंचल छैल छबीली थी॥<br><br>मुझको फँसा दिया तूने॥
दिल में एक चुभन-सी सब गलियाँ उसकी भी थी यह दुनिया अलबेली थी।<br>देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं। मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥<br><br>प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥
मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।<br>माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है। अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥<br><br>आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥
सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।<br>किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना। प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी प्यारी हैं॥<br><br>है भार बना॥
माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।<br>आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति। आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥<br><br>व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥
किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्धवह भोली-क्षेत्र संसार बना।<br>चिंता के चक्कर में पड़कर सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन भी है भार बना॥<br><br>निष्पाप। क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?
आ जा मैं बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।<br>को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी। व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥<br><br>नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥
वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।<br>'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी। क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?<br><br>कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥
मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।<br>पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतूहल था छलक रहा। नंदन वनमुँह पर थी आह्लाद-सी फूल उठी यह छोटीलालिमा विजय-सी कुटिया मेरी॥<br><br>गर्व था झलक रहा॥
मैंने पूछा 'यह क्या लायी?' बोल उठी वह 'माँ , काओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी।<br>कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥<br><br>हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'॥
पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।<br>पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया। मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥<br><br>उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥
मैंने पूछा 'यह क्या लायी?' बोल उठी वह 'माँमैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, काओ'।<br>तुतलाती हूँ। हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'॥<br><br>मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥
पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।<br>उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥<br><br> मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।<br>मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥<br><br> जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।<br>भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥ <br><br/poem>
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