भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"आँधी के तिनके थे / रश्मि विभा त्रिपाठी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रश्मि विभा त्रिपाठी }} {{KKCatKavita}} <poem> 1 अ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

22:08, 15 अप्रैल 2024 के समय का अवतरण

1
अब ना वो मेल रहा
जिसको देखो वो
अब दिल से खेल रहा।
2
राहें आसान नहीं
हार मगर माने
वो तो इंसान नहीं।
3
माँ मेरा सरमाया
मैं हूँ धूप कड़ी
वो एक घना साया।
4
आँखों में सच्चाई
बस इसकी मैंने
हर बार सजा पाई।
5
कैसा ये आलम है
रिश्ते टूट रहे
तन्हाई का गम है।
6
इंसान हकीकत में
वो ही होता जो
दे संग मुसीबत में।
7
मेला पल-छिन का है
हँस लो, गा लो तुम
जीवन दो दिन का है।
8
क्या बात हुई जाने
मेरे अपने ही
बन बैठे बेगाने।
9
दिन जो भी पीहर के
जी लेती बेटी
उनमें ही जीभर के।
10
आती खुशबू प्यारी
जब- जब मैं खोलूँ
यादों की अलमारी।
11
ना दुख मन में पालो
बीती बातों पे
अब तुम मिट्टी डालो।
12
कैसे हालात हुए
अरसा बीत गया
अपनों से बात हुए।
13
दुर्दिन जब आते हैं
कौन हमारा है
हमको दिखलाते हैं।
14
कैसा अभिमान भला
इंसाँ है जग में
माटी का इक पुतला।
15
कैसे दिन आए हैं
अपना ना कोई
अपने बस साए हैं।
16
दो दिन का मेल नहीं
प्यार निभा पाना
बच्चों का खेल नहीं।
17
ना देख वसीयत को
तू बूढ़ी माँ की
बस देख तबीयत को।
18
आती है रोज सबा
मुझसे ये कहने
ज़िंदा रखना जज़्बा।
19
जो उसका दावा था
साथ निभाने का
वो एक छलावा था।
20
इन सारे रिश्तों में
हर पल दर्द मिला
हमको तो किश्तों में।
21
आँधी के तिनके थे?
जाने किधर गए
जो दिन बचपन के थे।
22
अब तो वो गाँव मिले
मेरे सपनों का
चल- चलके पाँव छिले।
23
सब बंद झरोखे हैं
घर- बाहर देखो
धोखे ही धोखे हैं।
24
माटी के घर कच्चे
और न दिखते हैं
इंसाँ मन के सच्चे।
25
गर्मी की धूप हुए
रिश्ते- नाते तो
कैसे विद्रूप हुए।
26
राहों में शूल रहे
पर ना मुरझाए
हम तो बनफूल रहे।
27
किस्मत का खेल रहा
चार घड़ी को ही
अपना ये मेल रहा।
28
ऐसा क्या बैर हुआ
मेरा अपना ही
जाने क्यों गैर हुआ।
29
वो सारे लोग भले
क्या जाने अब तो
जाने किस ओर चले।
30
कैसा दस्तूर रहा
दिल में जो बसता
नजरों से दूर रहा।
31
तपते अंगारे हैं
जीवन के रस्ते
ऐसे ही सारे हैं।
32
तेरे ही बारे में
सोचूँ, जब देखूँ
ये टूटे तारे मैं।
33
जब तक तुम संग रहे
मेरे जीवन में
तब तक ही रंग रहे।
34
आँखों में पानी है
अपनों से पाई
ये खास निशानी है।
35
आँखों में एक नमी
मुझको खलती है
तेरी हर बार कमी।
36
बिखरे बेशक छल से
आख़िर निकले तो
रिश्तों के दलदल से।
37
हर कोई कोसे है
अब तो हर रिश्ता
भगवान भरोसे है।
38
कैसा ये मंज़र है
लोग गले मिलते
हाथों में ख़ंजर है।
39
अब तक ना लौटा वो
शायद पहने हो
क्या पता मुखौटा वो।