"पाण्डोरा का बक्सा / ईप्सिता षडंगी / हरेकृष्ण दास" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 8: | पंक्ति 8: | ||
<poem> | <poem> | ||
सपने सब सच हो रहे थे | सपने सब सच हो रहे थे | ||
− | गोद में माँ | + | गोद में माँ की । |
आहिस्ता आहिस्ता | आहिस्ता आहिस्ता |
07:04, 20 मई 2024 के समय का अवतरण
{{KKCatKavita}
सपने सब सच हो रहे थे
गोद में माँ की ।
आहिस्ता आहिस्ता
जब जवां होने लगी मैं
सपने भी होते गए भारी ।
तो उन्हें क़ैद करना पड़ा
बक्से में एक
किसी अधबुने स्वेटर की तरह
या एक अधबने टेडी भालू की तरह ।
बंध गई मैं जब
एक खम्भे से जाकर
तब मैंने सोचा
सच्चा सुख मिले या न मिले
लेकिन अपने सपनों के साथ जीना
निरालापन होगा ।
उस बक्से को मैं ले आई अपने साथ इधर
अपने नए क़ैदख़ाने पर ।
सबने उसे निहारा और
खुश हुए सब ।
मगर कोई बोला पहले मेरे कमरे में
फिर कोई बोला मेरी आलमारी में
फिर किसी और ने कहा मेरे दिल में
जगह ही नहीं थोड़ी सी भी कहीं ।
सपनों को दिशा दिखा दी गई
सही जगह उनकी ।
अब मेरी कहानी क़ैद होकर रह गई है
इस बंद बक्से में ।
बक्से में मेरे साथ
सिकुड़े पड़े हैं मेरे सपने
पड़े हैं धूल में लिपटे
किसी कोने में कहीं ।
ओड़िआ से अनुवाद : हरेकृष्ण दास