"टहल रही सुनसान सड़क पर जाँघ पर हाथ फेरती इच्छा / ध्रुव शुक्ल" के अवतरणों में अंतर
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भरी सभा में वस्त्र उतारकर उसके
उसे जाँघ पर बिठाने की
अपनी इच्छा पूरी करने
हम ही लाए थे उसको केश खींचकर
सदियों पहले उस भरी सभा में
अपने अन्याय के गवाह हम ही थे
अब भी हम ही हैं
किए हुए हैं नज़रें नीची
मन में दबी हुई वह इच्छा
आती है रह-रहकर बाहर
अब भरी हुई बस में, रेलों में
आ बैठी है जाँघ खोलकर
भरे हुए मेलों-ठेलों में
टहल रही सुनसान सड़क पर
पीछा करती अकेली स्त्री का
केश खींचती उसके
इस इच्छा को मारा नहीं किसी ने
अब तक बड़ा किया है पाल-पोसकर
दुनिया के नए बाज़ारों में
जो अब स्त्री को रौंद रही चलती कारों में
दाँव पर लगा रहे हैं उसको
हम अपने से हारे हुए जुआरी
क्यों नहीं टूटती हमसे
सदियों से खुली हुई यह जाँघ हमारी
सामना करके अपने ही अन्याय का
कोई कैसे हारे अपने आपसे
कोई कैसे जीते अपने आपको