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"सिर्फ़ आलोक ही नहीं / विजयदेव नारायण साही" के अवतरणों में अंतर

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सिर्फ़ आलोक ही नहीं
वह भी जिसमें आलोक समा जाता है।

सिर्फ़ विभोरता ही नहीं
वह भी जो विभोरता के बाहर साँय-साँय करता है।