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अर्थव्यवस्था का बनकर
औजार रहे हम
अरबों होकर भी ख़ुद में
दो-चार रहे हम
सिर्फ़ भाग जीते आये हैं
कब हो सके गुना
जो भी समय हमें कहता है
हमने कहाँ सुना
बालकनी में बँधे रहे हैं,
तार रहे हम
अनुयाई मन ने कबीर की
चादर कहाँ बुनी
भीड़ जुटी तो केवल करने
कीर्तन, रामधुनी
सिर्फ़ कमर में बँधी हुई
तलवार रहे हम
नित्य किनारे रहे ढूँढते
यात्रा नहीं थमी
पिघली नहीं अभी तक
जाने कैसी बर्फ़ जमी
लहरों से जूझे,
केवल पतवार रहे हम