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अधिकारों से
कर्तव्यों की सीढ़ी
चढ़ते हैं
लड़के आख़िर
कितनी
जल्दी-जल्दी बढ़ते हैं
क्या बनना है
बचपन से ही
रटा-रटाया है
घर का बोझ
उठाना है
सबने समझाया है
एक फ्रेम है
जिसमें अक्सर
ख़ुद को मढ़ते हैं
‘लड़के होकर रोते हो’
यह
उसे सुनाते हैं
बड़ी बहन का
अभिभावक तक
उसे बताते हैं
एक मर्द
बचपन से
उसके अंदर गढ़ते हैं
उम्मीदों की
गठरी को
ढोने वाले लड़के
ज़िम्मेदारी
में अक्सर
खोने वाले लड़के
जीवन को
पढ़ते-पढ़ते कब
ख़ुद को पढ़ते हैं ?