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"तुम्हारी स्मृति / कविता भट्ट" के अवतरणों में अंतर

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मेरा छलता लघु जीवन!
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जीवन के पथ पर
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तुम्हारी स्मृति पग-पग पर।
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मेरा नन्हा-सा मन
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सरस स्नेहिल-सा मन
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नव विकसित यौवन
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फिर भी डोलता-सा जर्जर।
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मेरे विक्षिप्त से मन !
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कहाँ चला था तू धीरे-धीरे
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किशोरवय का जटिल पथ चीरे
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कभी थकता, कभी रुकता
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चल-अचल, निश्छल पर चंचल
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अब क्यों रुक गया तू थककर
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कभी-कभी कुछ तो होता होगा तुझ को भी
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अपना जानकर कह दे कुछ मुझको भी
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यदि नहीं कहा, तो ये कैसी आस है?
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ये कैसी प्यास है?
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बुझती नहीं जो बुझ-बुझकर
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ये कैसी आस है?
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छूटती नहीं जो गिर-गिर कर
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ओ मेरे लघु प्रेमघन !
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जीवन के कंटक-पथ पर
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तुम्हारी स्मृति पग-पग पर।
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ब्रज अनुवाद-
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तिहारी सुरति/ रश्मि विभा त्रिपाठी
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मोरौ छलिया नान्हरिया जीवन
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जीवन के मारग पै
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तिहारी सुरति पग-पग पै
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मोरौ नैंकु सौ जियरा
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सरस सनेही सौ जियरा
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हाल कौ बिकसौ जोबन
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तौ ऊ डोलतु सौ लटौ
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मोरे बौराने से जियरा
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कित कढ्यौ ओ तूँ हरुएँ हरुएँ
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लरिकाई तैं आगे कौ कर्रौ मारग चीरें
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कबहूँ थाकै, कबहूँ अरै
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चल अचल, सूधौ पै लोल
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अजौं कत अरि गयौ तूँ थकि
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कबहूँ कबहूँ कछू तौ होतु ह्वैहै तोहि ऊ
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अपुनौ जानि बरनि कछु मोहि ऊ
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जौ नाहिं बरनी, तौ जे काहिं आस अहै?
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जे काहिं पियास अहै?
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बुझति नाहिं जो बुझि बुझि
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जे काहिं आस अहै?
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छुटति नाहिं जो गिरि गिरि
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अहो मोरे नान्हरिया प्रेमघन
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जीवन के कंटक मारग पै
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तिहारी सुरति पग पग पै।
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08:40, 26 अगस्त 2024 के समय का अवतरण


मेरा छलता लघु जीवन!
जीवन के पथ पर
तुम्हारी स्मृति पग-पग पर।
मेरा नन्हा-सा मन
सरस स्नेहिल-सा मन
नव विकसित यौवन
फिर भी डोलता-सा जर्जर।
मेरे विक्षिप्त से मन !
कहाँ चला था तू धीरे-धीरे
किशोरवय का जटिल पथ चीरे
कभी थकता, कभी रुकता
चल-अचल, निश्छल पर चंचल
अब क्यों रुक गया तू थककर
कभी-कभी कुछ तो होता होगा तुझ को भी
अपना जानकर कह दे कुछ मुझको भी
यदि नहीं कहा, तो ये कैसी आस है?
ये कैसी प्यास है?
बुझती नहीं जो बुझ-बुझकर
ये कैसी आस है?
छूटती नहीं जो गिर-गिर कर
ओ मेरे लघु प्रेमघन !
जीवन के कंटक-पथ पर
तुम्हारी स्मृति पग-पग पर।
-0-
ब्रज अनुवाद-
तिहारी सुरति/ रश्मि विभा त्रिपाठी

मोरौ छलिया नान्हरिया जीवन
जीवन के मारग पै
तिहारी सुरति पग-पग पै
मोरौ नैंकु सौ जियरा
सरस सनेही सौ जियरा
हाल कौ बिकसौ जोबन
तौ ऊ डोलतु सौ लटौ
मोरे बौराने से जियरा
कित कढ्यौ ओ तूँ हरुएँ हरुएँ
लरिकाई तैं आगे कौ कर्रौ मारग चीरें
कबहूँ थाकै, कबहूँ अरै
चल अचल, सूधौ पै लोल
अजौं कत अरि गयौ तूँ थकि
कबहूँ कबहूँ कछू तौ होतु ह्वैहै तोहि ऊ
अपुनौ जानि बरनि कछु मोहि ऊ
जौ नाहिं बरनी, तौ जे काहिं आस अहै?
जे काहिं पियास अहै?
बुझति नाहिं जो बुझि बुझि
जे काहिं आस अहै?
छुटति नाहिं जो गिरि गिरि
अहो मोरे नान्हरिया प्रेमघन
जीवन के कंटक मारग पै
तिहारी सुरति पग पग पै।
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