"एक स्वप्न कथा / भाग 1 / गजानन माधव मुक्तिबोध" के अवतरणों में अंतर
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध }} Category:लम्बी कविता {{KKPageNavigation ...) |
(कोई अंतर नहीं)
|
16:25, 22 नवम्बर 2008 के समय का अवतरण
पिछला पृष्ठ | पृष्ठ सारणी | अगला पृष्ठ >> |
- 1
- 1
एक विजय और एक पराजय के बीच
मेरी शुद्ध प्रकृति
मेरा 'स्व'
जगमगाता रहता है
विचित्र उथल-पुथल में।
मेरी साँझ, मेरी रात
सुबहें व मेरे दिन
नहाते हैं, नहाते ही रहते हैं
सियाह समुन्दर के अथाह पानी में
- उठते-गिरते हुए दिगवकाश-जल में।
- उठते-गिरते हुए दिगवकाश-जल में।
विक्षोभित हिल्लोलित लहरों में
मेरा मन नहाता रहता है
साँवले पल में।
फिर भी, फिसलते से किनारे को पकड़कर मैं
बाहर निकलने की, रह-रहकर तड़पती कोशिश में
कौंध-कौंध उठता हूँ;
इस कोने, उस कोने
- चकाचौंध-किरनें वे नाचतीं
- सामने बग़ल में।
- चकाचौंध-किरनें वे नाचतीं
मेरी ही भाँति कहीं इसी समुन्दर की
सियाह लहरों में नंगी नहाती हैं।
किरनीली मूर्तियाँ
मेरी ही स्फूर्तियाँ
निथरते पानी की काली लकीरों के
कारण, कटी-पिटी अजीब-सी शकल में।
उनके मुखारविन्द
मुझे डराते हैं,
इतने कठोर हैं कि कान्तिमान पत्थर हैं
क्वार्ट्ज़ शिलाएँ हैं
जिनमें से छन-छनकर
नील किरण-मालाएँ कोण बदलती हैं।
एक नया पहलू रोज़
सामने आता है प्रश्नों के पल-पल में