भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"होना मत मन तू उन्मन / सुरंगमा यादव" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुरंगमा यादव }} {{KKCatKavita}} <poem> अंधकार का...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
04:15, 27 अगस्त 2024 के समय का अवतरण
अंधकार का वक्ष चीरकर
फिर चमकेगा नवल प्रभात
अँधियारों की उजियारों से
जंग चली है आदि काल से
रात-दिवस में बीत रहे हैं
कितने जीवन कराह रहें हैं
हाथ बाँधकर सब कुछ चाहें
बैठ भर रहे ठंडी आहें
जीवन-लीला समझ ना पाएँ
कर्म बिना कैसे कुछ पाएँ
पाया है जब सुख का चंदन
दुःख के व्याल डराते क्यों मन
चाल हवा की रहे बदलती
कभी ठिठुरती कभी झुलसती
नदियों का जल घटता-बढ़ता
नहीं समान प्रवाह है रहता
जीवन भी नदिया की धारा
कभी पास, कभी दूर किनारा
मन में बसते सागर गहरे
उमड़-घुमड़ कर दुःख की लहरें
ले आएँगी सुख के मणिगण
होना मत मन तू उन्मन !
-0-