भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"स्त्री मन / रंजना जायसवाल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना जायसवाल (लखनऊ) |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

23:41, 6 सितम्बर 2024 के समय का अवतरण

चूल्हे की धधकती
हुई आंच में रखा
एक पतीला
मानो मन हो स्त्री का
जिसे कसकर ढक दिया हो
समाज की रीति-रिवाजों से
मन की इच्छाएँ, सपनें और अरमान
खदबदाते है
निकल जाना चाहते हैं
तोड़ कर बंदिशों की गिरहों को
पर सधे हुए हाथ
उतनी ही तेजी से ढक देते हैं
उस पतीले को
मानो चेताना चाहते हैं उसे
घुटती, कसमसाती,तड़पती
स्त्री का मन छलक आता है
पतीले की कोर से
और बिखर जाती है
उसकी सोंधी ख़ुशबू
सारी फ़िज़ां में
सधे हुए हाथ
फिर से लकडियाँ
ठूस देते हैं चूल्हे में
और छोड़ देते हैं उसको
उसकी तपिश में तपने के लिए
और उसके अरमानों की राख
वही दम तोड़ देती।