"प्लांचेट की टेबुल / बैरागी काइँला / सुमन पोखरेल" के अवतरणों में अंतर
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अब, क्योंकि युद्ध भी विश्राम करना चाहते हैं, मुझ से | अब, क्योंकि युद्ध भी विश्राम करना चाहते हैं, मुझ से | ||
21:33, 15 सितम्बर 2024 के समय का अवतरण
आह ! थक गया हूँ!
हथेली भर के लकीरों में
खड़ा कर के घेराव से ही युद्धविराम की लकीरें
अब, क्योंकि युद्ध भी विश्राम करना चाहते हैं, मुझ से
मैं, थोड़ी देर ......आराम..... करूँगा!
रहने दो, उठा नहीं सकते हैं जिजीविषा
एक कप चाय में!
ये हाथ!
बस् इतना सा ध्यान दो......
मनुष्यों-मनुष्यों के बीच धेरा लगाकर
उठ न पाएँ उन लकीरों पर बर्लिन की दीवारें!
आह ! थक गया हूँ!
मैं थोड़ी देर विश्राम करना चाहता हूँ
कोहने से दबाकर वर्तमान को टेबुल पर,
विगत को बाँधकर पलकों से आँखों में
थोड़ा सा !
आह ! थक गया हूँ!
चेहरे पर चिपका के खंडों को
समेट कर पत्थरों में ज़िंदगी को
अजन्ता के स्तम्भों पर झाँकते हैं स्थापत्य से
बेबस आँखें!
पत्थर में दबी हुई आँखें!
निरोह और उकताऊ संघर्ष
इतिहास भर
खोल लेते हैं शरीर से आवरण
ताड़पत्रों पर एक-एक शताब्दी को सुखा कर!
हतास–हतास जिंदगी!
आत्म-पीड़ा के सम्मोहन में उदास महत्वाकांक्षाएँ!
अब पीड़ित क्लोथोकोबिया से
नग्न कर लेते है निराशा में खुद को
जिग्गुरात और कोणार्क के कमरे के अंदर जंगल में!
उफ्फ! रनीवास उधेड़ता है तरुणीयों के शरीर से सभ्यता
आपदाएँ उग रही हैं.......
रोयल काउस्लीप के झाड़ में शहर ढँक रहा है
गाँवों को निगल रहा है .....
तलवार उठाकर ताजा ओन्दोङ फूल
उपर बढकर वीर मजार में जंगली का चेहरा
हमारे चारदीवारी बांधे हुए लकीरों को लांघता है नक्शे में
फूंकता है ............. उड़ाता है लकीरों को ............
क्यूरिया ओलंपिया के चौक से प्रतिध्वनित
जगे हुए घोड़े की टापों की आवाज़ें
हमें जीतते हैं :
मैं आया!
मैंने देखा!
मैंने जीत लिया!
पलकों पर नारियल के पेड़ के चारों ओर
नीले तालाब में
पार करा रहा शरीर के उपर ज़िंदगी
जिउसुद्दु, मनु और लेप्मुहाङ
प्रतिध्वनित सुनते हैं हम, पितामह के कानों से कल
आकाश वाणी
सावधान नाव तैयार करो
सावधान नाव तैयार करो
सावधान नाव तैयार करो
आह! कहाँ भागने के लिए तैयार हम!
इस धरती से –
जहाँ ज़िंदगी को हम नें ऐंडी तक उगाया है !
हम कायर और लाचार!
कहाँ के लिए हैं.....
ये बैल गाड़े!
ये स्लेज़ गाड़े!
जिप्सी मनुष्य!
हम सब जिप्सी मनुष्य!
कौन सी शताब्दी आश्रय देगा अजायबघर में
हम पराजीतों को!
ईंट पर क्यूनिफॉर्म गोदकर।
आह.......! – ह ! ....... !
अब –
जिउसुद्द
मनु, और
लेप्मुहाङ
वर्षों से, सशंकित चारों ओर इस क्षण का!
इस हथेली पर – यस क्षण, एक प्लांचेट की टेबल है!
वर्षों, इस प्लांचेट की टेबल के चारों ओर!
हाँ, समाधि से बाँधकर आँखों को
उँगलियों से दबाकर पेंसिल भर जमा हुए
इतिहास के पन्नों पर –
अनेक प्रश्न, अनेक आशंकाएँ
मुट्ठी से मसले हुए अगरबत्ती में,
कमरे में आग लगाने वाले अगरबत्ती में
हाँ, लास गंधाते हैं अगरबत्ती में!
आँखों में लाती है मुर्दों को अगरबत्ती की गंध –
टुँडिखेल से, कोतपर्व से,
कन्सन्ट्रेशन कैम्प की भट्टी से
और महायुद्धों से!
जागो! जागो!
मारे गए दिन!
विगत!
रिश्तेदार!
शहीद क्षण के हंस
जागो! जागो!
वह संघर्ष जो शिलाखंड पर चिपकता है!
वह स्वतंत्रता जो पत्थर में उकेरी जाती है!
वह मानवता जो पपड़ी-पपड़ी नोचा जाता है शताब्दी तक !
जागो! जागो!
विगत मसानघाट से पत्थर उलटाते हुए युग की
मद्दत करना आत्मनिर्णय करने के लिए भी असमर्थ को!
हमें!
बेचारे हमें!
हम बेचारे को!
अहो!
पेंसिल हलचल कर रहा है!
टाइरासियस की तर्जनी: यह पेंसिल!
भटके हुए आँखों को उच्छाल मे लेके
किनारे पे लाना, इतिहास में
सिर में खुजली होगी क्या हथेली के इस क्षण से!
हमारे दादा!
बूढा टाइरासियस! बूढा टाइरासियस!
नील नदी से गंगा के जल तक में तरंगित
फूलों के होंठों में तैरते हुए आए हुए किरणों के साथ
प्रातःकालीन जल तरंग में
पर्वत तक आते हैं क्या आदिम संगीत के ऋचाएँ!
अहो! संगीत में फूल खिलते हैं!
और फूलों में ज़िंदगी!
मनुष्य क्या फूलों में बादी भर फैल जाएगा!
पेंसिल हलचल कर रहा है!
टाइरासियस की तर्जनी: यह पेंसिल!
सलबल सलबल अंधेरा झुलता है पर्दे पर,
अब, किसी के हाथ से सरकाना पडेगा
पर्दे पर का अंधेरा को- खिड़की के दोनो तरफ !
मेरी संघर्ष: अनवरत संघर्ष
दो बोझे अंधेरों के खिलाफ ही तो है!
जिउसुद्दु
मनु और
लेम्पुहाङ
अंधेरे को एक एक हाथ से दबाकर दोनों तरफ
खुद को सर से उडेलकर खिड़की से, देखो–
ज़िंदगी चाँदनी में पिघल कर पनघट पर इंतजार कर रही है!
खुद से उडेल लेना चाहिए – बाहर
स्वतंत्रता को कचू के पत्ते पर ओगता है ।
अब, नक्शे में विजय नहीं होगी!
अब, एक और युद्ध का शंखघोष करें –
पोते को, गिलगमेश को सुनाने
पालने में, रस्सी से हिला कर रात भर!
मैं, एक और युद्ध शुरू करता हूँ अब–
भावना में और बुद्धि में,
और समय में,
बस, समय में!
अब पीठ से कंधे के ऊपर तक
छोटे-छोटे ज्यामितियों में ओगकर
थक चुके अंगुलियों में कमांडलू का जल
पीकर,
फिर से एक बार–
गंगोत्री की सिर से
बगली में दबाकर इतिहास को
मैं, हथेली के इस क्षण के घुमाव से–
कूद लेता हूँ:
बुद्धि में!
मैं!
बुद्धि पर आक्रमण करता हूँ ।
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