"माँ का उपहार / कविता भट्ट" के अवतरणों में अंतर
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+ | '''ब्रज -अनुवादः रश्मि विभा त्रिपाठी''' | ||
+ | मोहि दयौ मैया तेरौ | ||
+ | सिगतैं अमोलिकि उपहार | ||
+ | जो कबहुँ नाहिं ह्वै पायौ मेरौ | ||
+ | कछुक दिननि के काजैं ई भलैं | ||
+ | मोहि जानि परौ | ||
+ | जे सिग मोरौ ई अहै | ||
+ | अहै ना अचरज भरौ | ||
+ | मोरौ न ह्वैकैं ऊ मोरौ ई हत | ||
+ | मोहि जाई नाईं भ्यासत | ||
+ | मोरे प्यौसारे के खेरे के | ||
+ | कछू सिढ़ीदार खेत | ||
+ | मैया जे खेत-साखी देत | ||
+ | तो अरु मोरे साझे संघर्ष के | ||
+ | ऐतिहासिक अभिलेख हत जे | ||
+ | पहाड़ी महरिया के पसीना के | ||
+ | जो पसीना नाहिं, लहू हुतो। | ||
+ | जिनि खेतनि निरखौ हमकौं ओ | ||
+ | रोवत-हँसत, खिलखिलात | ||
+ | बाजूबंद-माँगुळ गुनगुनात | ||
+ | घसियारी गीत गात | ||
+ | जब ऊ बाधा कोऊ | ||
+ | भई पहाड़—सी भारी | ||
+ | जब ऊ घिरे दोऊ | ||
+ | काऊ अवसाद मैं | ||
+ | मोइ अरु तोइ सँभारौ जिनि खेतनि नैं | ||
+ | हम जिनिकी गोदी में मूँड़ धरि | ||
+ | घंटन लौं नैननि मोचत हुते | ||
+ | काऊ देवी समसरि | ||
+ | सहरायौ, मल्हायौ, समुझायौ | ||
+ | हमहिं जिनि खेतनि की माटी नैं | ||
+ | कि जीबौ उठनियाँ चढ़नियाँ कौ भलैं | ||
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+ | पै पहाड़ी महरि कौ जीबौ | ||
+ | काऊ तपसिन कै ऋषिका कौ | ||
+ | कै काऊ देवी कौ | ||
+ | फिरि जनमिबौ / औतार लैबौ होत | ||
+ | यातैं तुव सिग की नाईं नाहिं | ||
+ | औरैं, अजगुत हौ। | ||
+ | जब ऊ खेत की माटी नैं | ||
+ | हमहिं जे कहि धीर बँधायौ | ||
+ | हम सुबकत सुसुकत | ||
+ | पुनि जीवन की मुख्य धारा में | ||
+ | गए बहुरि, | ||
+ | हमनैं संघर्षनि | ||
+ | अपुनौ धरम अरु करम बनाइकैं | ||
+ | जीबौ सीखौ, अरु हम उदाहरण गए बनि | ||
+ | मान्स बखानी– | ||
+ | महरि पहाड़ की | ||
+ | देवी अहै, अहै तपसिनि | ||
+ | अहै सरब शक्तिशालिनि | ||
+ | नंदा भवानी। | ||
+ | पै मैया आजु मोरौ जिय | ||
+ | बहोरि बिचलौ | ||
+ | टिघिरौ अहै निरौ दुखी अहै | ||
+ | जे खेत जो हमहिं धीर बँधात हुते | ||
+ | जिनहिं सिग भुवन कौ सुनाइ दूख | ||
+ | हम आप निवेरौ पात हुते | ||
+ | जिनि खेतनि के बीठे, गाड़-गदेरे | ||
+ | कूलें, भीमल खड़ीक की भाँती औरउ रूख | ||
+ | जिनिके छोर के हार | ||
+ | सुनी हत– | ||
+ | काऊ दबंग माफ़िया ने बिनपै जमायौ अधिकार | ||
+ | सुनी हमारे दिल्ली मैं बसिबे पाछैं | ||
+ | नकसा बदलिकैं | ||
+ | कछू बहरूपियन नैं | ||
+ | थोरी कौड़िनि के काजैं | ||
+ | हमारे जिनि खेतनि कौं | ||
+ | सौंपि दयौ अहै | ||
+ | माफिया के हाथनि मैं। | ||
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+ | अब तुम ई बताउ मैया | ||
+ | हम अपुनौ निज अवसाद काकौं सुनैंहैं? | ||
+ | अरु अपुनी भावी पीढ़िनि कौं का उपहार देंहैं! | ||
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04:39, 30 नवम्बर 2024 के समय का अवतरण
माँ तेरा मुझे दिया हुआ
सबसे अनमोल उपहार
जो कभी मेरा न हो सका
कुछ दिनों के लिए ही सही
मुझे लगा कि
यह सब मेरा ही है
है ना आश्चर्य कि
मेरा न होकर भी मेरा ही है
मुझे ऐसी अनुभूति होती है
मेरे मायके के गाँव के
कुछ सीढ़ीदार खेत
माँ! ये खेत - साक्षी हैं
तेरे और मेरे संयुक्त संघर्ष के
ये ऐतिहासिक अभिलेख हैं
पहाड़ी महिला के पसीने के
जो पसीना नहीं, लहू था।
इन खेतों ने देखा हमें
रोते- हँसते, खिलखिलाते
बाजूबंद - माँगुळ गुनगुनाते
घसियारी गीत गाते
जब भी कोई समस्या
हुई पहाड़- सी भारी
जब भी घिरे तू और मैं
किसी अवसाद में
मुझे और तुझे इन खेतों ने सँभाला
हम इनकी गोद में सिर रखकर
घंटों तक रो लेते थे
किसी देवी के जैसे
सहलाया, पुचकारा, समझाया
इन खेतों की माटी ने हमें
कि जीवन उतार- चढ़ाव भरा सही
लेकिन पहाड़ी महिला का जीवन
किसी तपस्विनी या ऋषिका का
या किसी देवी का
पुनर्जन्म/अवतरण होता है
इसलिए तुम सामान्य नहीं
असाधारण हो।
जब भी खेत की माटी ने
हमें यह कहकर धीरज बँधाया
हम सुबकते- सिसकते
पुनः जीवन की मुख्य धारा में
लौट गए,
संघर्षों को हमने
अपना धर्म और कर्म बनाकर
जीना सीखा, और हम उदाहरण बन गए
लोग कहने लगे
महिला पहाड़ की
देवी है, तपस्विनी है
है सर्व शक्तिशालिनी
नंदा भवानी।
लेकिन माँ आज मेरा मन
फिर से विचलित है ,
द्रवित है , बहुत दुःखी है
ये खेत जो हमें धीरज बँधाते थे
जिनको सारे संसार का दुःख सुनाकर
हम स्वयं मुक्त हो जाते थे
इन खेतों के बीठे, गाड़ - गदेरे
कूलें, भीमल खड़ीक आदि के पेड़
इनके किनारे के चारागाह
सुना है –
किसी दबंग माफिया ने हथिया लिये हैं
सुना हमारे दिल्ली में बसने के बाद
नक्शों में बदलाव करके
कुछ बहुरूपियों ने
चंद कौड़ियों के लिए
हमारे इन खेतों को
सौंप दिया है
माफिया के हाथों में।
अब तुम ही बताओ माँ-
हम अपना अवसाद किसको सुनाएँगे?
और अपनी भावी पीढ़ियों को क्या उपहार देंगे !!
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ब्रज -अनुवादः रश्मि विभा त्रिपाठी
मोहि दयौ मैया तेरौ
सिगतैं अमोलिकि उपहार
जो कबहुँ नाहिं ह्वै पायौ मेरौ
कछुक दिननि के काजैं ई भलैं
मोहि जानि परौ
जे सिग मोरौ ई अहै
अहै ना अचरज भरौ
मोरौ न ह्वैकैं ऊ मोरौ ई हत
मोहि जाई नाईं भ्यासत
मोरे प्यौसारे के खेरे के
कछू सिढ़ीदार खेत
मैया जे खेत-साखी देत
तो अरु मोरे साझे संघर्ष के
ऐतिहासिक अभिलेख हत जे
पहाड़ी महरिया के पसीना के
जो पसीना नाहिं, लहू हुतो।
जिनि खेतनि निरखौ हमकौं ओ
रोवत-हँसत, खिलखिलात
बाजूबंद-माँगुळ गुनगुनात
घसियारी गीत गात
जब ऊ बाधा कोऊ
भई पहाड़—सी भारी
जब ऊ घिरे दोऊ
काऊ अवसाद मैं
मोइ अरु तोइ सँभारौ जिनि खेतनि नैं
हम जिनिकी गोदी में मूँड़ धरि
घंटन लौं नैननि मोचत हुते
काऊ देवी समसरि
सहरायौ, मल्हायौ, समुझायौ
हमहिं जिनि खेतनि की माटी नैं
कि जीबौ उठनियाँ चढ़नियाँ कौ भलैं
पै पहाड़ी महरि कौ जीबौ
काऊ तपसिन कै ऋषिका कौ
कै काऊ देवी कौ
फिरि जनमिबौ / औतार लैबौ होत
यातैं तुव सिग की नाईं नाहिं
औरैं, अजगुत हौ।
जब ऊ खेत की माटी नैं
हमहिं जे कहि धीर बँधायौ
हम सुबकत सुसुकत
पुनि जीवन की मुख्य धारा में
गए बहुरि,
हमनैं संघर्षनि
अपुनौ धरम अरु करम बनाइकैं
जीबौ सीखौ, अरु हम उदाहरण गए बनि
मान्स बखानी–
महरि पहाड़ की
देवी अहै, अहै तपसिनि
अहै सरब शक्तिशालिनि
नंदा भवानी।
पै मैया आजु मोरौ जिय
बहोरि बिचलौ
टिघिरौ अहै निरौ दुखी अहै
जे खेत जो हमहिं धीर बँधात हुते
जिनहिं सिग भुवन कौ सुनाइ दूख
हम आप निवेरौ पात हुते
जिनि खेतनि के बीठे, गाड़-गदेरे
कूलें, भीमल खड़ीक की भाँती औरउ रूख
जिनिके छोर के हार
सुनी हत–
काऊ दबंग माफ़िया ने बिनपै जमायौ अधिकार
सुनी हमारे दिल्ली मैं बसिबे पाछैं
नकसा बदलिकैं
कछू बहरूपियन नैं
थोरी कौड़िनि के काजैं
हमारे जिनि खेतनि कौं
सौंपि दयौ अहै
माफिया के हाथनि मैं।
अब तुम ई बताउ मैया
हम अपुनौ निज अवसाद काकौं सुनैंहैं?
अरु अपुनी भावी पीढ़िनि कौं का उपहार देंहैं!
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