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जन के, मन के
जीवन हक का
हुआ ‘शांति’-स्वर मौन अब
‘एक सूर्य रोटी पर’ धरकर
‘टूट रही परछाइयाँ’
‘भीतर-भीतर आग’ लगी है,
सुलग रहीं अमराइयाँ
‘एक हरापन लय का’
खोया
कहें नीम, सागौन अब
बरसे ‘इंद्रनील मेघा’ थे
‘मौसम हुआ कबीर’ रे
जिनके ‘सानिध्या’ में आकर
मिटी हृदय की पीर रे
‘अड़हुल डाली पर’
मुरझाया
‘धूप रँगे दिन’ गौण अब
नवगीतों की प्रथम कोकिला
शब्द-बिछौना छोड़कर
बिम्बों की चित्रावलियों से
गयी कहाँ मुँह मोड़कर
उपवन-उपवन
कहो प्रेम के
‘सुमन’ खिलाये कौन अब।
(प्रथम नवगीत-कवयित्री शांति सुमन जी के देहांत पर)