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"वाक़या है या के तेरा जिक्र अफ़सानों में है / ‘अना’ क़ासमी" के अवतरणों में अंतर
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बात कुछ तो है के तू अख़बार के ख़ानों में है | बात कुछ तो है के तू अख़बार के ख़ानों में है | ||
− | निस्फ़ शब | + | निस्फ़ शब तो ग़र्क़ उसकी जामो-पैमानों में है |
− | और बाक़ी जो है वो तस्बीह | + | और बाक़ी जो है वो तस्बीह के दानों में है |
− | हम मतन | + | हम मतन रहे लेकिन अब आया ये दिमाग़ |
लुत्फ़ तो सारे का सारा हाशिया ख़ानों में है | लुत्फ़ तो सारे का सारा हाशिया ख़ानों में है | ||
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क्यों घुमें ये हाथ क्यों जुंबिश तिरे शानों में है | क्यों घुमें ये हाथ क्यों जुंबिश तिरे शानों में है | ||
− | क्या कहें इसको, सरे मक़तल | + | क्या कहें इसको, सरे मक़तल जो ख़ंजर बकफ़ |
− | वो बरहना सर | + | वो बरहना सर अली के मरसिया ख़्वानों में है |
− | सर बकफ़ | + | सर बकफ़ फिरता हूँ शहर में तनहा, कि सुन |
ख़ौफ़ कैसा जब के वो मेरे निगहबानों में है | ख़ौफ़ कैसा जब के वो मेरे निगहबानों में है | ||
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13:26, 31 दिसम्बर 2024 के समय का अवतरण
वाक़या है या के तेरा ज़िक्र अफ़सानों में है
बात कुछ तो है के तू अख़बार के ख़ानों में है
निस्फ़ शब तो ग़र्क़ उसकी जामो-पैमानों में है
और बाक़ी जो है वो तस्बीह के दानों में है
हम मतन रहे लेकिन अब आया ये दिमाग़
लुत्फ़ तो सारे का सारा हाशिया ख़ानों में है
यूँ नहीं, अब इन लबों को भी तो ज़हमत दीजिये
क्यों घुमें ये हाथ क्यों जुंबिश तिरे शानों में है
क्या कहें इसको, सरे मक़तल जो ख़ंजर बकफ़
वो बरहना सर अली के मरसिया ख़्वानों में है
सर बकफ़ फिरता हूँ शहर में तनहा, कि सुन
ख़ौफ़ कैसा जब के वो मेरे निगहबानों में है