भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"हल निकलते बात से हैं, बात होने दीजिये / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास' |अन...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

22:59, 19 जनवरी 2025 के समय का अवतरण

हल निकलते बात से हैं, बात होने दीजिये।
जंग के पैदा न बस हालात होने दीजिये।

जो भी होगा झूठ सच सारा पता चल जायेगा,
बस ज़रूरी मित्र तहकीकात होने दीजिये।

कल मुझे यदि रख दे ज़ालिम दार पर मत रोकना,
फिर से पैदा इक दफे सुकरात होने दीजिये।

खत्म होंगे ये तपिश के दिन बढ़ी उम्मीद है,
नम हवाओं की ज़रा शुरुआत होने दीजिये।

आप मत अर्दब में आयें, पड़ रही हो शह अगर,
मात होती है हमारी मात होने दीजिये।

गुल खिलेंगे शाख़ पर छोड़े न दामन सब्र का,
दोस्त महकेगा चमन बरसात होने दीजिये।

आसमां, आकाश गंगा, चाँद तारों से सजा,
देखना ‘विश्वास’ है तो रात होने दीजिये।