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जिन्दगी बेसूद लगती दिल के रिश्तों के बगैर।
मैकदा रोया बहुत कल रात रिन्दों के बगैर।
सिसकियाँ भर हर कली है तितलियों से पूछती,
साँस लेगा कब चमन अपना दरिन्दों के बगैर।
सोचो बाक़ी जंगलों को काटने से पेश्तर,
आदमी जिन्दा बचेगा क्या दरख्तों के बगैर।
कर दिया आसां सफ़र इक बोलती तस्वीर ने,
दम निकल जाता वगरना उनकी यादों के बगैर।
सब मुहब्बत से रहें बस दिल में रखकर ये ख़याल,
कौन कब्रिस्तान पहुँचा चार काँधों के बगैर।
बेवफाई यार की महका रही है हर ग़ज़ल,
रौशनी करता नहीं दिल सर्द आहों के बगैर।
आज भी ‘विश्वास’ दिल में टीसता है ये सवाल,
एक दिन वह शख़्स मिलता हमसे शर्तों के बगैर।