भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"मजबूर उतने गाँव से घर बेच कर चले / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास' |अन...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
23:24, 27 जनवरी 2025 के समय का अवतरण
मजबूर उतने गाँव से घर बेच कर चले।
जितने दबे थे आपके एहसान के तले।
का़तिल को देख मुद्दई मुंसिफ के तख्त पर,
बोला लिखा नसीब का टाले नहीं टले।
लायें कहाँ से रौशनी बस्ती में आज हम,
बाती न है न तेल है कैसे दिया जले।
घेरे में शक के आ गई नीयत जनाब की,
जो दी सफाई, मुल्क के उतरी नहीं गले।
जारी अभी है जु़ल्म का बेख़ौफ सिलसिला,
कमजोर को जहाँ पर जो चाहे दबोच ले।
दरकी है घर के आपकी बुनियाद जा-ब-जा,
अब तो हुज़ूर कीजिये वादे न खोखले।
किसको मुआफ है किया तारीख़ ने कहो,
जितने रहे हैं तख्त पर हुक़्काम दोगले।
काबिल यक़ीन के कोई रहबर रहा नहीं,
लिल्लाह अपनी अक़्ल से हर शख़्स काम ले।
‘विश्वास’ काम कीजिये ऐसे ज़मीन पर,
हर शख़्स बाद आपके इज़्जत से नाम ले।