भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मैं हूँ ज़माने की हर शय से बेख़बर फिर भी / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna | रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब' | संग्रह = }} {{KKCatGhazal}} <poem> मैं हूँ …)
 
 
पंक्ति 13: पंक्ति 13:
 
लबों पे जारी है उसके अगर मगर फिर भी
 
लबों पे जारी है उसके अगर मगर फिर भी
  
फ़रेब खा के भी बदज़न नहीं हुआ क्योंकर
+
फ़रेब खा के भी बदज़न नहीं हुआ लेकिन
 
समझता आया है दिल उसको मोतबर फिर भी
 
समझता आया है दिल उसको मोतबर फिर भी
  
पंक्ति 22: पंक्ति 22:
 
तलाशे-यार है जारी इधर-उधर फिर भी
 
तलाशे-यार है जारी इधर-उधर फिर भी
  
पता है उसको के इन्सानियत का खूँ होगा
+
पता है उसको के इन्सानियत का खूँ होगा
 
लगाता आग है ज़ालिम नगर-नगर फिर भी
 
लगाता आग है ज़ालिम नगर-नगर फिर भी
  
'रक़ीब' इल्म की दौलत से मालामाल तो है
+
'रक़ीब' इल्म की दौलत से मालदार तो है
 
बराए-रिज़्क भटकता है दर-बदर फिर भी
 
बराए-रिज़्क भटकता है दर-बदर फिर भी
 +
 
</poem>
 
</poem>

22:14, 4 फ़रवरी 2025 के समय का अवतरण


मैं हूँ ज़माने की हर शय से बेख़बर फिर भी
ज़माने वालों की मुझपे ही है नज़र फिर भी

मैं उसके हुस्न की तारीफ़ कर के हार गया
लबों पे जारी है उसके अगर मगर फिर भी

फ़रेब खा के भी बदज़न नहीं हुआ लेकिन
समझता आया है दिल उसको मोतबर फिर भी

फ़रिश्ता लाख इबादत करे फ़रिश्ता है
गुनाह लाख करे, है बशर, बशर फिर भी

ख़बर है मुल्के - अदम से वो आ नहीं सकते
तलाशे-यार है जारी इधर-उधर फिर भी

पता है उसको के इन्सानियत का खूँ होगा
लगाता आग है ज़ालिम नगर-नगर फिर भी

'रक़ीब' इल्म की दौलत से मालदार तो है
बराए-रिज़्क भटकता है दर-बदर फिर भी