"रत्तीभर झूठ नहीं इसमें, सपनों में मेरे आते हो तुम / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'" के अवतरणों में अंतर
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भड़की है आग रक़ाबत की, उस आग में मन जलता है 'रक़ीब' | भड़की है आग रक़ाबत की, उस आग में मन जलता है 'रक़ीब' | ||
दामन से हवा ख़ुद दे दे कर, क्यों आग को भड़काते हो तुम | दामन से हवा ख़ुद दे दे कर, क्यों आग को भड़काते हो तुम | ||
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23:59, 4 फ़रवरी 2025 के समय का अवतरण
रत्तीभर झूठ नहीं इसमें, सपनों में मेरे आते हो तुम
फिर देख के चौबारे में मुझे, मुहँ फेर के क्यों जाते हो तुम
होटों पे तुम्हारे ख़ामोशी, सारा सारा दिन रहती है
क्या गीत, ग़ज़ल रातों को तुम, ख़्वाबों में बस गाते हो तुम
नींद आती नहीं रातों को मुझे, बस चाँद को तकता रहता हूँ
और बन के चकोरी चन्दा की, मन मेरा बहलाते हो तुम
कहती है ये ठंडी पुरवाई, आ जाओ गले से लग जाओ
दाँतों में होंट दबाकर यूँ, क्यों मुझसे शरमाते हो तुम
क्या बिगड़ेगा खिल जाएँगी, दिल के गुलशन में कलियाँ जो
खुलकर ज़रा मुस्काओ जानम, मन ही मन मुस्काते हो तुम
देखें क्यों बेगाने जोबन, यौवन को नज़र लग जाएगी
क्यों धूप में, मेरा सर अपने, यूँ आँचल में छाते हो तुम
थी बाली उमर नादानी थी, चंचल था मन हैरानी थी
क्या अपने शाने पर मेरा, सर रखकर समझाते हो तुम
दुनिया तुम्हें कुछ भी कहती है, कहने दो इसे ये दुनिया है
कुर'आन की सूरत मन में हो, गीता की तरह भाते हो तुम
भड़की है आग रक़ाबत की, उस आग में मन जलता है 'रक़ीब'
दामन से हवा ख़ुद दे दे कर, क्यों आग को भड़काते हो तुम