"वो पास अगर मेरे होती, भर लेता उसे मैं बाहों में / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'" के अवतरणों में अंतर
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इक और बला ने घेर लिया, पहले से घिरे थे बलाओं में | इक और बला ने घेर लिया, पहले से घिरे थे बलाओं में | ||
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गुलशन में गुलों से क्या शिकवा, काँटे भी तो मुझपर हंसते हैं | गुलशन में गुलों से क्या शिकवा, काँटे भी तो मुझपर हंसते हैं | ||
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अब कोई हमारा कोई नहीं, अब कोई हमारा कोई 'रक़ीब' | अब कोई हमारा कोई नहीं, अब कोई हमारा कोई 'रक़ीब' | ||
ख़ुशियों से बहुत डर लगता है, रहते हैं ग़म की पनाहों में | ख़ुशियों से बहुत डर लगता है, रहते हैं ग़म की पनाहों में | ||
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01:18, 5 फ़रवरी 2025 के समय का अवतरण
वो पास अगर मेरे होती, भर लेता उसे मैं बाहों में
उड़ती हुई जो आती है नज़र, दिन रात सुहाने ख़्वाबों में
मशहूर है उसकी चंचलता, माना है शरारत की देवी
आता है नज़र भोलापन भी, कुछ उसकी शोख़ अदाओं में
ग़ुरबत भी थी और बेकारी भी, ग़ुरबत में मोहब्बत कर बैठे
इक और बला ने घेर लिया, पहले से घिरे थे बलाओं में
इज़ हारे-मोहब्बत कर न सका, मैं जिससे मोहब्बत करता था
डरता था के वो क्या सोचेगा, गिर जाऊं न उसकी निगाहों में
गुलशन में गुलों से क्या शिकवा, काँटे भी तो मुझपर हंसते हैं
दुश्मन है फ़ज़ा भी अब मेरी, नफ़रत का असर है हवाओं में
सुख और दुःख के तुम साथी थे, क्यों रूठ गए क्या बात हुई
अब तुम ही कहो मैं कैसे चलूँ तनहा जीवन की राहों में
छोड़ा न कहीं का भी मुझको, चाहत ने तुझे पा लेने की
मैं हद से गुज़र कर इंसां की, ले डूब गया हूँ गुनाहों में
वो जिनसे मोहब्बत है मुझको, मैं ढूंढ रहा हूँ मुद्दत से
घर जिनका है मेरी आँखों में, रहते हैं जो मेरी आहों में
अब कोई हमारा कोई नहीं, अब कोई हमारा कोई 'रक़ीब'
ख़ुशियों से बहुत डर लगता है, रहते हैं ग़म की पनाहों में