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"शहीदे वतन का नहीं कोई सानी / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'" के अवतरणों में अंतर

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शहीदे वतन का नहीं कोई सानी  
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वतन वालों पर उनकी है मेहरबानी  
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शहीदे वतन का नहीं कोई सानी
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वतन वालों पर उनकी है मेहरबानी
वतन पर निछावर किया अपना सब कुछ  
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लड़कपन का आलम बुढ़ापा जवानी  
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वतन पर निछावर किया अपना सब कुछ
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लड़कपन का आलम बुढ़ापा जवानी
किया दिल से हर फ़ैसला ज़िंदगी का  
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कोई बात समझी, न बूझी, न जानी  
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किया दिल से हर फ़ैसला ज़िंदगी का
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कोई बात समझी, न बूझी, न जानी
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लड़े खून की आख़िरी बूँद तक वो
 
लड़े खून की आख़िरी बूँद तक वो
लहू की नदी भी पड़ी है बहानी  
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लहू की नदी भी पड़ी है बहानी
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कफ़न की कसम, “हो हिफाज़त वतन की”  
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कफ़न की कसम, “हो हिफाज़त वतन की”
वसीयत शहीदों की है मुहँजबानी
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वसीयत शहीदों की है मुहँज़बानी
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वतन के लिए जो फ़ना हो गए हैं  
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वतन के लिए जो फ़ना हो गए हैं
तिरंगा उन्हीं की सुनाता कहानी  
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तिरंगा उन्हीं की सुनाता कहानी
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'रक़ीब' उनका क्यों ज़िक्र दो दिन बरस में  
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'रक़ीब' उनका क्यों ज़िक्र दो दिन बरस में
वो हैं जाविदाँ ज़िक्र भी जाविदानी          
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वो हैं जाविदाँ ज़िक्र भी जाविदानी
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11:22, 10 फ़रवरी 2025 के समय का अवतरण


शहीदे वतन का नहीं कोई सानी
वतन वालों पर उनकी है मेहरबानी

वतन पर निछावर किया अपना सब कुछ
लड़कपन का आलम बुढ़ापा जवानी

किया दिल से हर फ़ैसला ज़िंदगी का
कोई बात समझी, न बूझी, न जानी

लड़े खून की आख़िरी बूँद तक वो
लहू की नदी भी पड़ी है बहानी

कफ़न की कसम, “हो हिफाज़त वतन की”
वसीयत शहीदों की है मुहँज़बानी

वतन के लिए जो फ़ना हो गए हैं
तिरंगा उन्हीं की सुनाता कहानी

'रक़ीब' उनका क्यों ज़िक्र दो दिन बरस में
वो हैं जाविदाँ ज़िक्र भी जाविदानी