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"कल रात वह औरत / गायत्रीबाला पंडा / राजेंद्र प्रसाद मिश्र" के अवतरणों में अंतर

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स्मृतियों की पातालपुरी में
 
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लाल छींट की फ्रॉक पहन
 
लाल छींट की फ्रॉक पहन
फुदकने लगी आंगन में गौरया सी,
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फुदकने लगी आँगन में गौरया सी,
 
बगीचे से चुनकर तोड़ा एक लाल गुलाब
 
बगीचे से चुनकर तोड़ा एक लाल गुलाब
 
जूड़े में खोंस लिया
 
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आईने में ख़ुद को देखते ही
 
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शर्म से छुई-मुई हो गई.
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कल रात उस औरत ने  
 
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आँसुओं को, क्षय को
 
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कहीं कोई और न जान जाए  
 
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जल्दी-जल्दी पोंछ डाला मन के कैनवास से.
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कल रात उस औरत ने  
 
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तमाम आयुष्काल से
 
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फ़िर ख़ुद को परोस देने के दवाब को
 
फ़िर ख़ुद को परोस देने के दवाब को
परितृप्ति का आवरण उठा झिझकते हुए झाँका
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परितृप्ति का आवरण उठा झिझकते हुए झाँका
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कल रात वह औरत  
 
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अचानक जाकर बैठ गयी
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बचपन के तालाब किनारे
 
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पानी में फेंकने लगी
 
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भर-भर मुट्ठी अन्यमनस्कता
 
भर-भर मुट्ठी अन्यमनस्कता
न जाने किसका इंतज़ार किया देर तक
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न जाने किसका इन्तज़ार किया देर तक
 
साँझ होने पर उठकर चली आई
 
साँझ होने पर उठकर चली आई
अनंत मान-मनव्वल का खोमचा उठा  
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अनन्त मान-मनव्वल का खोमचा उठा  
रुआँसे से गढ़े आवास में.
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रुआँसे से गढ़े आवास मे ।
  
 
कल रात उस औरत ने  
 
कल रात उस औरत ने  
 
घावों को सहलाकर पपड़ियाँ उखाड़ दीं
 
घावों को सहलाकर पपड़ियाँ उखाड़ दीं
दुःख, घाव, माया, मोह, भय और अफ़सोस को  
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सेमल के रुई की तरह उड़ा दिया आकाश में.
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कल रात उस औरत ने  
 
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अस्थिर चहलकदमी की अपने हीं भीतर  
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देह से लौटकर जाती गर्माहट को देख कुछ मुस्कुरायी
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देह से लौटकर जाती गर्माहट को देख कुछ मुस्कुराई
 
पृथ्वी को पुकार कर आगे बढ़ा दिया अपना नाम  
 
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और नाम के बगल में बनाकर एक कोष्ठक  
 
और नाम के बगल में बनाकर एक कोष्ठक  
बोली, अब मैं आज़ाद हूँ, आज़ाद हूँ.
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कल रात वह औरत  
 
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हमेशा के लिए सो गयी निश्चिंत नींद में  
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सुबह उसके नाम के बगल में  
 
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बना था सिर्फ़ एक कोष्ठक  
 
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जन्म और मृत्यु का साल लिखा था
 
जन्म और मृत्यु का साल लिखा था
उस कोष्ठक में.
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उस कोष्ठक मे ।
  
 
'''मूल ओड़िया भाषा से अनुवाद : राजेन्द्र प्रसाद मिश्र'''
 
'''मूल ओड़िया भाषा से अनुवाद : राजेन्द्र प्रसाद मिश्र'''

20:39, 19 फ़रवरी 2025 का अवतरण

कल रात उस औरत ने
पोशाक की तरह उतार डाली
अपनी देह से देह की परछाईं

मीलों मील चलकर जा पहुँची
स्मृतियों की पातालपुरी में
लाल छींट की फ्रॉक पहन
फुदकने लगी आँगन में गौरया सी,
बगीचे से चुनकर तोड़ा एक लाल गुलाब
जूड़े में खोंस लिया
आईने में ख़ुद को देखते ही
शर्म से छुई-मुई हो गई ।

कल रात उस औरत ने
पुराने दिनों-सा याद किया
पुराने पाप और प्रेम को
अनादर और उपेक्षा को
आँसुओं को, क्षय को
कहीं कोई और न जान जाए
जल्दी-जल्दी पोंछ डाला मन के कैनवास से ।

कल रात उस औरत ने
ख़ुद बनाई हर तरकारी का स्वाद याद किया
परोसने के समय की अनुभूतियों को सहेजा
तमाम आयुष्काल से
फ़िर ख़ुद को परोस देने के दवाब को
परितृप्ति का आवरण उठा झिझकते हुए झाँका ।

कल रात वह औरत
अचानक जाकर बैठ गई
बचपन के तालाब किनारे
पानी में फेंकने लगी

भर-भर मुट्ठी अन्यमनस्कता
न जाने किसका इन्तज़ार किया देर तक
साँझ होने पर उठकर चली आई
अनन्त मान-मनव्वल का खोमचा उठा
रुआँसे से गढ़े आवास मे ।

कल रात उस औरत ने
घावों को सहलाकर पपड़ियाँ उखाड़ दीं
दुख, घाव, माया, मोह, भय और अफ़सोस को
सेमल की रुई की तरह उड़ा दिया आकाश में ।

कल रात उस औरत ने
अस्थिर चहलक़दमी की अपने हीं भीतर
देह से लौटकर जाती गर्माहट को देख कुछ मुस्कुराई
पृथ्वी को पुकार कर आगे बढ़ा दिया अपना नाम
और नाम के बगल में बनाकर एक कोष्ठक
बोली, अब मैं आज़ाद हूँ, आज़ाद हूँ ।

कल रात वह औरत
हमेशा के लिए सो गई निश्चिन्त नीन्द में
सुबह उसके नाम के बगल में
बना था सिर्फ़ एक कोष्ठक
जन्म और मृत्यु का साल लिखा था
उस कोष्ठक मे ।

मूल ओड़िया भाषा से अनुवाद : राजेन्द्र प्रसाद मिश्र