भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"जब-तब नींद उचट जाती है / नरेन्द्र शर्मा" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= नरेन्द्र शर्मा |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
|रचनाकार= नरेन्द्र शर्मा
+
|रचनाकार=नरेन्द्र शर्मा
 
|अनुवादक=
 
|अनुवादक=
 
|संग्रह=
 
|संग्रह=
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}
 
<poem>
 
<poem>
भरे जंगल के बीचो बीच,
+
जब-तब नींद उचट जाती है
न कोई आया गया जहाँ,
+
पर क्या नींद उचट जाने से
चलो, हम दोनों चलें वहाँ ।
+
रात किसी की कट जाती है ?
+
 
जहाँ दिन भर महुआ पर झूल,
+
देख-देख दु:स्वप्न भयंकर,
रात को चू पड़ते हैं फूल,
+
चौंक-चौंक उठता हूँ डरकर;
बाँस के झुरमुट में चुपचाप,
+
पर भीतर के दु:स्वप्नों से
जहाँ सोए नदियों के कूल;
+
अधिक भयावह है तम बाहर !
 
+
आती नहीं उषा, बस, केवल
हरे जंगल के बीचो - बीच,
+
आने की आहट आती है !
कोई आया गया जहाँ,
+
 
चलो, हम दोनों चलें वहाँ।
+
देख अँधेरा नयन दूखते,
+
दुश्चिंता में प्राण सूखते !
विहग - मृग का ही जहाँ निवास,
+
सन्नाटा गहरा हो जाता,
जहाँ अपने धरती, आकाश,
+
जब-जब श्वान - शृंगाल भूँकते !
प्रकृति का हो हर कोई दास,
+
भीत भावना, भोर सुनहली
न हो पर इसका कुछ आभास,
+
नयनों के न निकट लाती है !
 
+
 
खरे जंगल के बीचो - बीच,
+
मन होता है फिर सो जाऊँ,
कोई आया गया जहाँ,
+
गहरी निद्रा में खो जाऊँ;
चलो, हम दोनों चलें वहाँ ।
+
जब तक रात रहे धरती पर,
 +
चेतन से फिर जड़ हो जाऊँ !
 +
उस करवट अकुलाहट थी, पर
 +
नींद इस करवट आती है !
 +
 
 +
करवट नहीं बदलता है तम,
 +
मन उतावलेपन में अक्षम !
 +
जगते अपलक नयन बावले,
 +
थिर न पुतलियाँ, निमिष गए थम !
 +
साँस आस में अटकी, मन को
 +
आस रात भर भटकाती है !
 +
 
 +
जागृति नहीं अनिद्रा मेरी,
 +
नहीं गई भव-निशा अँधेरी !
 +
अन्धकार केन्द्रित धरती पर,
 +
देती रही ज्योति चकफेरी !
 +
अन्तर्यानों के आगे से
 +
शिला तम की हट पाती है !
 
</poem>
 
</poem>

17:28, 28 फ़रवरी 2025 के समय का अवतरण

जब-तब नींद उचट जाती है
पर क्या नींद उचट जाने से
रात किसी की कट जाती है ?

देख-देख दु:स्वप्न भयंकर,
चौंक-चौंक उठता हूँ डरकर;
पर भीतर के दु:स्वप्नों से
अधिक भयावह है तम बाहर !
आती नहीं उषा, बस, केवल
आने की आहट आती है !

देख अँधेरा नयन दूखते,
दुश्चिंता में प्राण सूखते !
सन्नाटा गहरा हो जाता,
जब-जब श्वान - शृंगाल भूँकते !
भीत भावना, भोर सुनहली
नयनों के न निकट लाती है !

मन होता है फिर सो जाऊँ,
गहरी निद्रा में खो जाऊँ;
जब तक रात रहे धरती पर,
चेतन से फिर जड़ हो जाऊँ !
उस करवट अकुलाहट थी, पर
नींद न इस करवट आती है !

करवट नहीं बदलता है तम,
मन उतावलेपन में अक्षम !
जगते अपलक नयन बावले,
थिर न पुतलियाँ, निमिष गए थम !
साँस आस में अटकी, मन को
आस रात भर भटकाती है !

जागृति नहीं अनिद्रा मेरी,
नहीं गई भव-निशा अँधेरी !
अन्धकार केन्द्रित धरती पर,
देती रही ज्योति चकफेरी !
अन्तर्यानों के आगे से
शिला न तम की हट पाती है !