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"कि पी के धुत्त हो जाते हो काहे इस क़दर भइये / अशोक अंजुम" के अवतरणों में अंतर

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23:15, 9 मार्च 2025 के समय का अवतरण

कि पी के धुत्त हो जाते हो काहे इस क़दर भइये
नहीं दिखती तुम्हें नाली, नहीं दिखता गटर भइये

तुम्हारे रूम से रह-रह के चीखें रात-भर आईं
किसी डाइन के चक्कर में रहे क्या रात-भर भइये

कहा बीवी ने जब साड़ी दिलाओ, तुमने ना कर दी
कहाँ से लेके आए हो अरे इतना जिगर भइये

हुई औलाद आवारा पुलिस के रोज़ ही लफड़े
अरे जब ध्यान देना था रहे क्यों बेख़बर भइये

बने बाबा मगर हरकत वही लुच्चों-लफंगों-सी
सदा कलियों पर रखते हो अरे गंदी नज़र भइये

उड़ी सोने की वह चिड़िया, हुआ कव्वों का अब शासन
कहाँ से हम चले थे और आ पहुँचे किधर भइये

सियासत की नदी में जो उतरने जा रहे हो तुम
जरा रहना संभलकर हैं बहुत इसमें मगर भइये

किसी उस्ताद के चंगुल में फँसकर फड़फड़ाओगे
‘शह्र’ को शहर कहते हो ‘बह्र’ को तुम बहर भइये