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रात 9 से 10 के बीच लिखी गई कविताएँ - 3
पत्नी पिराए के लिए
25 सितम्बर 1945
नौ बज गए हैं ।
चौराहे का घण्टाघर बजा रहा है गज़र,
बन्द ही होने वाले होंगे बैरक के दरवाज़े ।
क़ैद कुछ ज़्यादा ही लम्बी हो गई इस बार :
आठ साल ...
ज़िन्दगी उम्मीद का ही दूसरा नाम है, मेरी जान !
ज़िन्दा रहना भी, तुम्हें प्यार करने की तरह
संजीदा काम है ।
००
26 सितम्बर 1945
उन्होंने हमें पकड़कर बन्दी बना लिया,
मुझे चारदीवारी के भीतर,
और तुम्हें बाहर ।
मगर ये कुछ भी नहीं ।
इससे बुरा तो तब होता है
जब लोग — जाने या अनजाने —
अपने भीतर ही जेल लिए फिरते हैं ...
ज़्यादातर लोग ऐसी ही हालत में हैं
ईमानदार, मेहनतकश, भले लोग
जो उतना ही प्यार किए जाने के क़ाबिल हैं,
जितना मैं तुम्हें करता हूँ ...!
००
30 सितम्बर 1945
तुम्हें याद करना एक ख़ूबसूरत शय है
जो उम्मीद देती है मुझे,
जैसे सबसे ख़ूबसूरत गीत को सुनना
दुनिया की सबसे मधुर आवाज़ में ।
मगर सिर्फ़ उम्मीद ही मेरे लिए काफ़ी नहीं ।
अब गीत सुनकर ही नहीं रह जाना चाहता मैं —
गाना चाहता हूँ उन्हें ...!
०००
अनुवाद : मनोज पटेल