भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"अंतत: / सुकेश साहनी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
					
										
					
					| पंक्ति 14: | पंक्ति 14: | ||
| मेरे होठों पर | मेरे होठों पर | ||
| पर नहीं रोक सका मेरे | पर नहीं रोक सका मेरे | ||
| − | रोम छिद्रों से बहता पसीना | + | रोम- छिद्रों से बहता पसीना | 
| झल्लाकर | झल्लाकर | ||
| उसने काट डाले मेरे | उसने काट डाले मेरे | ||
| पंक्ति 22: | पंक्ति 22: | ||
| अन्ततः | अन्ततः | ||
| उसने झोंक दिया मुझको | उसने झोंक दिया मुझको | ||
| − | बिजली की भट्ठी में | + | बिजली की भट्ठी में; | 
| पर नहीं छीन सका मुझसे | पर नहीं छीन सका मुझसे | ||
| − | अंसख्य-असंख्य  | + | अंसख्य-असंख्य माँएँ | 
| </poem> | </poem> | ||
18:39, 29 मार्च 2025 के समय का अवतरण
उसने जला डाला
मेरा घास-फूस का घर
पर नहीं जला पाया
पैरों तले की धरती
और
सिर पर का आसमान
उसने लगवा दिए ताले
मेरे होठों पर
पर नहीं रोक सका मेरे
रोम- छिद्रों से बहता पसीना
झल्लाकर
उसने काट डाले मेरे
हाथ और पैर
फिर भी डोलता रहा आसन
मेरे दिल की धड़कनों से
अन्ततः
उसने झोंक दिया मुझको
बिजली की भट्ठी में;
पर नहीं छीन सका मुझसे
अंसख्य-असंख्य माँएँ
 
	
	

