भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"गिरती हुई महराब का मंज़र लिए हुए / सत्यवान सत्य" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सत्यवान सत्य |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
22:36, 31 मार्च 2025 के समय का अवतरण
गिरती हुई महराब का मंज़र लिए हुए
कोई न जिए जेहन में खण्डर लिए हुए
मुझको थी ज़रूरत किसी दरिया की बूँद की
वो आए मगर साथ में सागर लिए हुए
जीता है कोई जीस्त को फूलों के साथ में
जीता है कोई हाथ में पत्थर लिए हुए
माँ बाप की बीमारियाँ बच्चों की भूख भी
हरदम वह गया काम पर है घर लिए हुए
दुनिया की सभी जहमतें बेबात ही यहाँ
कितने ही बशर फिर रहे सर पर लिए हुए
है वज़्न मेरे सर पर बहुत काम धाम का
घर पर मैं पहुँचता हूँ यूँ दफ़्तर लिए हुए
कब से ही तेरा देख रहा हूँ मैं रास्ता
अब आ भी मेरे दोस्त तू खंज़र लिए हुए