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"फिर भी किसी को याद आउं तो / कुमार सौरभ" के अवतरणों में अंतर

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कृतज्ञता का बोझ बन टंगा न रहूँ
 
कृतज्ञता का बोझ बन टंगा न रहूँ
  
किसी को याद आ जाउं फिर भी  
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तो इस तरह तो आउं
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कि किसी के दुखते हुए सिर पर कभी हाथ रखा था
 
कि किसी के दुखते हुए सिर पर कभी हाथ रखा था
 
कि किसी के साथ घंटों तब बिताए थे
 
कि किसी के साथ घंटों तब बिताए थे

14:03, 4 अप्रैल 2025 के समय का अवतरण

न रहूँ किसी के धन्यवाद ज्ञापन में
किसी के आत्मकथ्य
में भी मेरी पैठ न हो
किसी के सुखी दिनों में तो विस्मृत ही रहूँ
शरीक रहूँ किसी के दुखी दिनों में
तब भी उबरते दिनों पर
कृतज्ञता का बोझ बन टंगा न रहूँ

किसी को याद आ जाऊं फिर भी
तो इस तरह तो आऊं
कि किसी के दुखते हुए सिर पर कभी हाथ रखा था
कि किसी के साथ घंटों तब बिताए थे
कि जब उसे इसकी जरूरत थी
कि किसी की शर्ट से टूट कर गिरा बटन
उठाकर उसे सौंपा था
कि किसी जलती दोपहरी में
बोतल के खत्म हो रहे पानी से
किसी की प्यास बाँटी थी
कि किसी के लिए रोशनी की परवाह तब की थी
जब मैं खुद अंधेरा हुआ करता था !