भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"हर जगह मैं ढूँढता हूँ पर नहीं दिखता है गाँव / अमर पंकज" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> हर जग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

23:19, 20 अप्रैल 2025 के समय का अवतरण

हर जगह मैं ढूँढता हूँ पर नहीं दिखता है गाँव,
हैं बहुत ऊँचे मकाँ अब घट रही पेड़ो की छाँव।

खो गईं पगडंडियाँ भटका रही नूतन सड़क,
मैं चलूँ अब किस दिशा कोई बता दो मुझको ठाँव।

पाँव के नीचे ज़मीं जिनके खिसकती जा रही,
झूमते फिर भी नशे में लड़खड़ाते उनके पाँव।

बंद मुट्ठी सामने लहरा रहा है रोज़ वह,
और बेसुध हम लगाते जा रहे हैं ख़ुद पर दाँव।

चीख़ हो या हो हँसी रहती है किसको अब ख़बर,
ये ‘अमर’ बदलाव है हो शहर या फिर कोई गाँव।