भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"घाट से दूर जाने लगी है नदी / शिव मोहन सिंह" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शिव मोहन सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{K...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

23:23, 12 मई 2025 के समय का अवतरण

घाट से दूर जाने लगी है नदी,
रेत में अब नहाने लगी है नदी।

दौड़ते- दौड़ते हाँफते - हाँफते,
धड़कनों को छुपाने लगी है नदी ।

पार जाना जिसे बा-कदम जाइये,
भीगने से बचाने लगी है नदी।

दाग धोती रही हर लहर रात-दिन,
आज दामन बचाने लगी है नदी।

अब लहर का नहीं रेत का मोल है,
नींद में थरथराने लगी है नदी ।

आग- अंगार को, धूप को, ख़ार को,
आँधियों को सुहाने लगी है नदी ।

ज़ख़्म के हैं निशां बोलते जिस्म पर,
हर नज़र के निशाने लगी है नदी ।