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"अश्रुओं का आकाश / पूनम चौधरी" के अवतरणों में अंतर

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वृक्षों के तनों से कभी-कभी
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बूँद-बूँद आँसू रिसते हैं,
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बरगद की जटाओं में उलझी बूँदें—
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ठीक वैसे ही जैसे मेरी पलकों पर ठहरी
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एक अधूरी कहानी।
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वे कभी ओस बनकर झर जाती हैं,
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तो कभी नदी बनकर बह जाती हैं।
  
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मेरे आँसू—
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वे बारिश की तरह आते हैं,
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अनायास—
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कभी किसी ने छू लिया
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जैसे पत्ते पर गिरा
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पहला ओसकण,
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या किसी ने
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कंधे पर रख दिया
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सहानुभूति का हाथ—
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और एकाएक
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मन का आकाश
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काले बादलों से भर जाता है।
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कभी किसी गीत के सुर में,
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कभी किसी धड़कन के जुगनू में,
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कभी किसी याद की नदी में
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ये आँसू बह निकलते हैं।
  
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ये आँसू—
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मेरी दुर्बलता नहीं,
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बल्कि जीवन्त प्रमाण हैं
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मेरे भीतर की धरती के
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जलस्रोत का—
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जहाँ भावनाएँ
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बीज की तरह पलती हैं
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और एक दिन
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आकाश छूने को
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मजबूत वृक्ष बन जाती हैं।
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कभी—
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किसी चिड़िया का गीत
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मन की फुनगी पर ठहरकर
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मेरे भीतर के
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शुष्क मरुस्थल में
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नमी घोल देता है।
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तब उन गीतों के पीछे छिपे अर्थ
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मेरे आँसुओं के रूप में
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कभी चुपचाप,
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तो कभी वेग से
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बह निकलते हैं।
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कभी—
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किसी का एक शब्द
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जैसे हवा का हल्का झोंका
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खिड़की पर पड़ा
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परदा हिला देता है।
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उस हिलते परदे के पीछे
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छुपे मेरे अनकहे दुखों की
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धूल झर जाती है—
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जैसे बादल बरसने के बाद
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नीला आकाश
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अपनी आत्मा को धो लेता है।
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ये आँसू—
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सिर्फ पानी नहीं,
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ये तो मेरे अंतर की
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वह नदी हैं,
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जिसमें बहती हैं
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स्मृतियाँ, अनुभूतियाँ
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और निश्छल प्रेम।
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कभी दुःख के पर्वत से फूटकर,
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तो कभी सुख के झरने से छलककर
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ये बहते हैं—
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क्योंकि मैं इंसान हूँ,
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क्योंकि मैं संवेदनाओं से बनी हूँ।
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मेरे भीतर का सूरज
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कभी-कभी
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बादलों में घिर जाता है,
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पर जब आँसू बरसते हैं,
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वही बादल
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इन्द्रधनुष छोड़ जाते हैं।
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मैंने सीखा है—
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ये आँसू मेरी ताकत हैं।
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ये मुझे सिखाते हैं—
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किसी फूल की पंखुड़ी पर गिरी ओस
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दुर्बलता नहीं होती,
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वह तो उसकी सुंदरता का हिस्सा है।
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जैसे मेरे आँसू—
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प्रमाण हैं मेरे भीतर के ईश्वर का।
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जैसे सरस्वती की जलधारा
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कभी-कभी अनायास
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धरती से फूट निकलती है,
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वैसे ही मेरे आँसू
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मेरे भीतर की नदी को
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संगीतमयी बना देते हैं।
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ओ मेरे आँसू !
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तुम बहते रहो;
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क्योंकि तुमसे ही मैं
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मिट्टी की तरह भीतर से
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उपजाऊ बनती हूँ।
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तुमसे ही मैं
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दुनिया के दुखों को
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अपनी हथेलियों में
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थाम सकती हूँ।
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तुमसे ही मैंने
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जीवन का मर्म सीखा है—
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अब मैं जी भरकर हँस सकती हूँ,
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क्योंकि मैंने जी भरकर
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रोना सीखा है।
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तुम मेरी शक्ति हो,
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मेरा यथार्थ हो।
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तुम्हें रोकना
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स्वयं को पत्थर बना देना है,
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तुम्हें बहने देना
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खुद को मनुष्य बनाए रखना है।
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मेरे आँसू—
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तुम बहो;
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क्योंकि सच्चाई
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कभी कमजोर नहीं बनाती।
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जैसे नदी का प्रवाह
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चट्टानों को तराश देता है,
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वैसे ही मेरे आँसू
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मेरी चट्टानी हिम्मत को
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नरम रखते हैं
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और मुझे
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मनुष्य बनाए रखते हैं।
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15:15, 8 जून 2025 के समय का अवतरण

मैंने देखा है—
वृक्षों के तनों से कभी-कभी
बूँद-बूँद आँसू रिसते हैं,
बरगद की जटाओं में उलझी बूँदें—
ठीक वैसे ही जैसे मेरी पलकों पर ठहरी
एक अधूरी कहानी।
वे कभी ओस बनकर झर जाती हैं,
तो कभी नदी बनकर बह जाती हैं।

मेरे आँसू—
वे बारिश की तरह आते हैं,
अनायास—
कभी किसी ने छू लिया
जैसे पत्ते पर गिरा
पहला ओसकण,
या किसी ने
कंधे पर रख दिया
सहानुभूति का हाथ—
और एकाएक
मन का आकाश
काले बादलों से भर जाता है।
कभी किसी गीत के सुर में,
कभी किसी धड़कन के जुगनू में,
कभी किसी याद की नदी में
ये आँसू बह निकलते हैं।

ये आँसू—
मेरी दुर्बलता नहीं,
बल्कि जीवन्त प्रमाण हैं
मेरे भीतर की धरती के
जलस्रोत का—
जहाँ भावनाएँ
बीज की तरह पलती हैं
और एक दिन
आकाश छूने को
मजबूत वृक्ष बन जाती हैं।

कभी—
किसी चिड़िया का गीत
मन की फुनगी पर ठहरकर
मेरे भीतर के
शुष्क मरुस्थल में
नमी घोल देता है।
तब उन गीतों के पीछे छिपे अर्थ
मेरे आँसुओं के रूप में
कभी चुपचाप,
तो कभी वेग से
बह निकलते हैं।

कभी—
किसी का एक शब्द
जैसे हवा का हल्का झोंका
खिड़की पर पड़ा
परदा हिला देता है।
उस हिलते परदे के पीछे
छुपे मेरे अनकहे दुखों की
धूल झर जाती है—
जैसे बादल बरसने के बाद
नीला आकाश
अपनी आत्मा को धो लेता है।

ये आँसू—
सिर्फ पानी नहीं,
ये तो मेरे अंतर की
वह नदी हैं,
जिसमें बहती हैं
स्मृतियाँ, अनुभूतियाँ
और निश्छल प्रेम।
कभी दुःख के पर्वत से फूटकर,
तो कभी सुख के झरने से छलककर
ये बहते हैं—
क्योंकि मैं इंसान हूँ,
क्योंकि मैं संवेदनाओं से बनी हूँ।

मेरे भीतर का सूरज
कभी-कभी
बादलों में घिर जाता है,
पर जब आँसू बरसते हैं,
वही बादल
इन्द्रधनुष छोड़ जाते हैं।

मैंने सीखा है—
ये आँसू मेरी ताकत हैं।
ये मुझे सिखाते हैं—
किसी फूल की पंखुड़ी पर गिरी ओस
दुर्बलता नहीं होती,
वह तो उसकी सुंदरता का हिस्सा है।
जैसे मेरे आँसू—
प्रमाण हैं मेरे भीतर के ईश्वर का।
जैसे सरस्वती की जलधारा
कभी-कभी अनायास
धरती से फूट निकलती है,
वैसे ही मेरे आँसू
मेरे भीतर की नदी को
संगीतमयी बना देते हैं।

ओ मेरे आँसू !
तुम बहते रहो;
क्योंकि तुमसे ही मैं
मिट्टी की तरह भीतर से
उपजाऊ बनती हूँ।
तुमसे ही मैं
दुनिया के दुखों को
अपनी हथेलियों में
थाम सकती हूँ।
तुमसे ही मैंने
जीवन का मर्म सीखा है—
अब मैं जी भरकर हँस सकती हूँ,
क्योंकि मैंने जी भरकर
रोना सीखा है।

तुम मेरी शक्ति हो,
मेरा यथार्थ हो।
तुम्हें रोकना
स्वयं को पत्थर बना देना है,
तुम्हें बहने देना
खुद को मनुष्य बनाए रखना है।

मेरे आँसू—
तुम बहो;
क्योंकि सच्चाई
कभी कमजोर नहीं बनाती।
जैसे नदी का प्रवाह
चट्टानों को तराश देता है,
वैसे ही मेरे आँसू
मेरी चट्टानी हिम्मत को
नरम रखते हैं
और मुझे
मनुष्य बनाए रखते हैं।

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