"नन्हे ईश्वर / पूनम चौधरी" के अवतरणों में अंतर
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+ | वे बच्चे, | ||
+ | जिन्हें ईश्वर ने भेजा है इस धरती पर | ||
+ | एक बिना रेखा के भाग्यपत्र लेकर, | ||
+ | नंदनवन नहीं — | ||
+ | धूलभरी गलियों, टपकती छतों, | ||
+ | और दरकती दीवारों की शरण में। | ||
+ | वे बच्चे, | ||
+ | जिनके पैरों में न जूते हैं, | ||
+ | न मन में कोई शिकायत। | ||
+ | भूख उनके लिए एक दैनिक प्रार्थना है | ||
+ | और नींद— | ||
+ | फूस की झोंपड़ी के तनों पर झूलती | ||
+ | मायूस चुप्पी की तरह टिकी रहती है। | ||
+ | वे सरकारी पाठशालाओं की देहरी चूमते हैं | ||
+ | सिर्फ इसलिए नहीं कि उन्हें ज्ञान चाहिए, | ||
+ | बल्कि इसलिए भी कि दोपहर की थाली में | ||
+ | एक मुट्ठी चावल, | ||
+ | एक फूली रोटी | ||
+ | और थोड़ी गरम दाल | ||
+ | उनके स्वप्नों की ऊष्मा है। | ||
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+ | वो रटते हैं 'क' से 'कबूतर', | ||
+ | जबकि आँखों में कौंधती है | ||
+ | कुएँ से पानी लाती माँ की थकान, | ||
+ | और 'ग' से 'गाय' के साथ | ||
+ | जुड़ा होता है शाम का दूध | ||
+ | जो कभी उनके हिस्से आता ही नहीं। | ||
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+ | इन बच्चों के बस्तों में | ||
+ | गणित के सवालों से कहीं अधिक भारी होते हैं | ||
+ | उनके घर के अधूरे छप्पर, | ||
+ | बाप की कठोर हथेलियाँ, | ||
+ | माँ की चुपचाप पी जाने वाली पीड़ा, | ||
+ | और— | ||
+ | शिक्षा व्यवस्था की कृत्रिम मुस्कुराहट। | ||
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+ | वे नन्हे ईश्वर हैं, | ||
+ | इसलिए नहीं कि वे चमत्कारी हैं, | ||
+ | बल्कि इसलिए कि वे जूझते हैं — | ||
+ | बिना ईश्वर को दोष दिए, | ||
+ | बिना समाज से बदला लिए, | ||
+ | बिना टूटे हुए आत्मबल के | ||
+ | वे जीते हैं — | ||
+ | जैसे कोई दीपक हवा में डगमगाते हुए भी | ||
+ | दीप्त रहता है। | ||
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+ | क्या तुमने देखा है किसी सात-आठ साल की बच्ची को, | ||
+ | जो विद्यालय की भीड़ में | ||
+ | भोजन की थाली लिए | ||
+ | दाल में तैरती मिर्ची को | ||
+ | एक अदृश्य ईश्वर की भेंट समझकर | ||
+ | मन ही मन आभार प्रकट करती है? | ||
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+ | नीति-नियंताओ! | ||
+ | क्या तुमने कभी उनके स्थान पर | ||
+ | स्वयं को देखा है? | ||
+ | जहाँ शिक्षा | ||
+ | पाठ्यक्रम नहीं, | ||
+ | बल्कि भोजन का प्रवेश-द्वार बन जाती है, | ||
+ | जहाँ ‘सर्व शिक्षा अभियान’ | ||
+ | केवल एक भीत्ति- लेख बनकर रह जाता है, | ||
+ | और शिक्षकों की उपस्थिति | ||
+ | प्रशासनिक प्रतिवेदन में सिमट जाती है। | ||
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+ | समाधान क्या हो? | ||
+ | कविता नहीं पूछती प्रश्न | ||
+ | कविता उत्तर बताती है — | ||
+ | शिक्षा को अनुभवमूलक बनाइए, | ||
+ | शिक्षकों को प्रशिक्षित नहीं, | ||
+ | संवेदनशील बनाइए। | ||
+ | बस्तों को भार नहीं, | ||
+ | संभावनाओं का पुलिंदा बना दीजिए। | ||
+ | विद्यालय को केवल भवन नहीं, | ||
+ | जीवन का पर्याय बना दीजिए। | ||
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+ | इन नन्हे ईश्वरों के लिए | ||
+ | कोई देवालय नहीं चाहिए — | ||
+ | बस एक ऐसी कक्षा चाहिए, | ||
+ | जहाँ ब्लैकबोर्ड पर लिखे अक्षरों में | ||
+ | भविष्य की सम्भावना झिलमिलाए | ||
+ | जहाँ किताबों के भीतर | ||
+ | केवल पन्ने नहीं, | ||
+ | अवसर और समानता का उजास हो | ||
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+ | शिक्षक भर सकें आत्मिक बल | ||
+ | दे सकें सहज विश्वास | ||
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+ | वे बच्चे — | ||
+ | हमारी सबसे बड़ी कविता हैं, | ||
+ | और यह समाज — | ||
+ | अगर अब भी मौन रहा, | ||
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+ | वंचित ईश्वर कहकर पुकारेगा। | ||
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15:17, 8 जून 2025 के समय का अवतरण
वे बच्चे,
जिन्हें ईश्वर ने भेजा है इस धरती पर
एक बिना रेखा के भाग्यपत्र लेकर,
नंदनवन नहीं —
धूलभरी गलियों, टपकती छतों,
और दरकती दीवारों की शरण में।
वे बच्चे,
जिनके पैरों में न जूते हैं,
न मन में कोई शिकायत।
भूख उनके लिए एक दैनिक प्रार्थना है
और नींद—
फूस की झोंपड़ी के तनों पर झूलती
मायूस चुप्पी की तरह टिकी रहती है।
वे सरकारी पाठशालाओं की देहरी चूमते हैं
सिर्फ इसलिए नहीं कि उन्हें ज्ञान चाहिए,
बल्कि इसलिए भी कि दोपहर की थाली में
एक मुट्ठी चावल,
एक फूली रोटी
और थोड़ी गरम दाल
उनके स्वप्नों की ऊष्मा है।
वो रटते हैं 'क' से 'कबूतर',
जबकि आँखों में कौंधती है
कुएँ से पानी लाती माँ की थकान,
और 'ग' से 'गाय' के साथ
जुड़ा होता है शाम का दूध
जो कभी उनके हिस्से आता ही नहीं।
इन बच्चों के बस्तों में
गणित के सवालों से कहीं अधिक भारी होते हैं
उनके घर के अधूरे छप्पर,
बाप की कठोर हथेलियाँ,
माँ की चुपचाप पी जाने वाली पीड़ा,
और—
शिक्षा व्यवस्था की कृत्रिम मुस्कुराहट।
वे नन्हे ईश्वर हैं,
इसलिए नहीं कि वे चमत्कारी हैं,
बल्कि इसलिए कि वे जूझते हैं —
बिना ईश्वर को दोष दिए,
बिना समाज से बदला लिए,
बिना टूटे हुए आत्मबल के
वे जीते हैं —
जैसे कोई दीपक हवा में डगमगाते हुए भी
दीप्त रहता है।
क्या तुमने देखा है किसी सात-आठ साल की बच्ची को,
जो विद्यालय की भीड़ में
भोजन की थाली लिए
दाल में तैरती मिर्ची को
एक अदृश्य ईश्वर की भेंट समझकर
मन ही मन आभार प्रकट करती है?
नीति-नियंताओ!
क्या तुमने कभी उनके स्थान पर
स्वयं को देखा है?
जहाँ शिक्षा
पाठ्यक्रम नहीं,
बल्कि भोजन का प्रवेश-द्वार बन जाती है,
जहाँ ‘सर्व शिक्षा अभियान’
केवल एक भीत्ति- लेख बनकर रह जाता है,
और शिक्षकों की उपस्थिति
प्रशासनिक प्रतिवेदन में सिमट जाती है।
समाधान क्या हो?
कविता नहीं पूछती प्रश्न
कविता उत्तर बताती है —
शिक्षा को अनुभवमूलक बनाइए,
शिक्षकों को प्रशिक्षित नहीं,
संवेदनशील बनाइए।
बस्तों को भार नहीं,
संभावनाओं का पुलिंदा बना दीजिए।
विद्यालय को केवल भवन नहीं,
जीवन का पर्याय बना दीजिए।
इन नन्हे ईश्वरों के लिए
कोई देवालय नहीं चाहिए —
बस एक ऐसी कक्षा चाहिए,
जहाँ ब्लैकबोर्ड पर लिखे अक्षरों में
भविष्य की सम्भावना झिलमिलाए
जहाँ किताबों के भीतर
केवल पन्ने नहीं,
अवसर और समानता का उजास हो
और
शिक्षक भर सकें आत्मिक बल
दे सकें सहज विश्वास
वे बच्चे —
हमारी सबसे बड़ी कविता हैं,
और यह समाज —
अगर अब भी मौन रहा,
तो इतिहास उन्हें
नन्हे ईश्वर कहकर नहीं,
वंचित ईश्वर कहकर पुकारेगा।
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