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"जो साथ जाएगा / पूनम चौधरी" के अवतरणों में अंतर

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पर क्या कभी रुककर देखा है —
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ना वह घड़ी,
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जिसे हमने सबसे सहेजकर रखा था,
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ना वह हवेली,
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जिसमें दीवारों से अधिक मौन था।
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ना बैंक का संतुलन,
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ना तिजोरी की सुनहरी साँकलें।
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जो साथ जाएगा —
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वह होगी एक नेह की स्मृति,
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जिसने विपरीत समय में दिया हौसला।
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एक क्षमा,
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जो किसी अपरिचित को दी गई थी
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बिना उत्तर की अपेक्षा के।
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जो कभी शब्दों से अधिक,
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समझाई थी आँखों ने
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जो भावनाओं में निवेश की गई,
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कर्मों में बोई गई,
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और किसी के हृदय में
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बीज की तरह पनपी।
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जो अब भी हमारी छाया में चलते हैं,
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वो निर्णय जो किसी के जीवन को आलोकित कर गए,
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वो मौन सेवा,
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जो किसी के संसार को थोड़ी देर टिकाए रही।
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आज जब हम संग्रह में लगे हैं,
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क्या हम संचित कर रहे हैं
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कुछ ऐसा
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जो मृत्यु के पार भी बचेगा?
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क्योंकि अंत में —
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हम नहीं गिनेंगे सम्पदा और जमा राशि,
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हम याद करेंगे वो एक खिड़की
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जहाँ बैठकर किसी के साथ चाय पी थी।
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हम नहीं दोहराएँगे कौन कितना कमा गया,
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हम ढूँढेंगे वे हाथ
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जिसने निःस्वार्थ हमारा सिर सहलाया था।
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वह एक दर्पण है
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कि इस यात्रा में
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जब जीवन है बाकी —
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स्पर्श कीजिए —
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क्योंकि अंत में
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जाएगा साथ यही,
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केवल वह स्नेह
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जो हम बन गए थे किसी के लिए।
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और जब सब कुछ छूट जाएगा —
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तब जो रहेगा शेष,
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वह होगा एक कम्पन,
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जो किसी की स्मृति में अंकित होगा आशीष की तरह।
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तब हमारा होना
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किसी किताब में दर्ज पंक्ति नहीं,
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किसी हृदय का जीवित भाव होगा।
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न कोई श्राद्ध —
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बस किसी का अंतर,
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किसी की आत्मा
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हौले से दे गवाही-
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"वो चला गया... पर बहुत कुछ छोड़ गया है भीतर"
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तो वही होगी अमरता।
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इसलिए मृत्यु से पूर्व
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हो लें बस इतना मनुष्य
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छीन न सके मृत्यु भी
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जो समय के पार भी
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किसी के जीवन में राह दिखा सके।
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15:20, 8 जून 2025 के समय का अवतरण

हम दिन भर जोड़ते हैं —
थोड़ा सुख, थोड़ी शोभा,
नगों की चमक, दीवारों की ऊँचाई,
खर्चों की योजनाएँ और भविष्य के बीमे
पर क्या कभी रुककर देखा है —
इन सबमें से
वास्तव में साथ कौन जाएगा?

ना वह घड़ी,
जिसे हमने सबसे सहेजकर रखा था,
ना वह हवेली,
जिसमें दीवारों से अधिक मौन था।
ना बैंक का संतुलन,
ना तिजोरी की सुनहरी साँकलें।

जो साथ जाएगा —
वह होगी एक नेह की स्मृति,
जिसने विपरीत समय में दिया हौसला।
एक क्षमा,
जो किसी अपरिचित को दी गई थी
बिना उत्तर की अपेक्षा के।
वह करुणा —
जो कभी शब्दों से अधिक,
समझाई थी आँखों ने

जीवन की सबसे मूल्यवान पूँजी
वो होगी —
जो भावनाओं में निवेश की गई,
कर्मों में बोई गई,
और किसी के हृदय में
बीज की तरह पनपी।

कर्म —
जो अब भी हमारी छाया में चलते हैं,
वो निर्णय जो किसी के जीवन को आलोकित कर गए,
वो मौन सेवा,
जो किसी के संसार को थोड़ी देर टिकाए रही।

आज जब हम संग्रह में लगे हैं,
क्या हम संचित कर रहे हैं
कुछ ऐसा
जो मृत्यु के पार भी बचेगा?

क्योंकि अंत में —
हम नहीं गिनेंगे सम्पदा और जमा राशि,
हम याद करेंगे वो एक खिड़की
जहाँ बैठकर किसी के साथ चाय पी थी।
हम नहीं दोहराएँगे कौन कितना कमा गया,
हम ढूँढेंगे वे हाथ
जिसने निःस्वार्थ हमारा सिर सहलाया था।

मृत्यु कोई अंत नहीं —
वह एक दर्पण है
जो दिखाता है
कि इस यात्रा में
कौन सा भार अर्थहीन था,
और कौन सी स्मृति —
अमूल्य।

इसलिए अभी,
जब जीवन है बाकी —
बाँटिए दूसरों की पीड़ा
सुनिए मौन को
स्पर्श कीजिए —
किसी आत्मा को,

क्योंकि अंत में
जाएगा साथ यही,
न नाम, न यश,
केवल वह स्नेह
जो हम बन गए थे किसी के लिए।

और जब सब कुछ छूट जाएगा —
देह, परिचय, अधिकार, वस्त्र और वाणी —
तब जो रहेगा शेष,
वह होगा एक कम्पन,
जो किसी की स्मृति में अंकित होगा आशीष की तरह।

तब हमारा होना
किसी किताब में दर्ज पंक्ति नहीं,
किसी हृदय का जीवित भाव होगा।
न कोई समाधि चाहिए,
न कोई श्राद्ध —
बस किसी का अंतर,
किसी की आत्मा
हौले से दे गवाही-
 "वो चला गया... पर बहुत कुछ छोड़ गया है भीतर"
तो वही होगी अमरता।

इसलिए मृत्यु से पूर्व
हो लें बस इतना मनुष्य
छीन न सके मृत्यु भी
वो उजली स्मृतियाँ
जो समय के पार भी
किसी के जीवन में राह दिखा सके।
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