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"पलकें चुभ रही हैं / ओसिप मंदेलश्ताम" के अवतरणों में अंतर

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पलकें चुभ रही हैं
 
पलकें चुभ रही हैं
 
 
हृदय से आँसू छलकने को आतुर
 
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डर नहीं लगता फिर भी
 
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आएगा
 
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आएगा फिर-फिर
 
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आएगा तूफ़ान
 
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पर कोई बात है
 
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कोई बात है अज़ीब
 
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जो कह रही है मुझ से
 
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बस, यही तेरा नसीब
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बहुत उमस है
 
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घुट रहा है दम
 
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फिर भी मन करता है बेहद
 
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जीवन यह जी लूँ मैं, हमदम
 
जीवन यह जी लूँ मैं, हमदम
 
  
 
यह सुबह की शुरूआत है
 
यह सुबह की शुरूआत है
 
 
जाग उठे हैं साँप, छ्छूंदर, घूस, नेवले
 
जाग उठे हैं साँप, छ्छूंदर, घूस, नेवले
 
 
अपने बिलों से निकल-निकल
 
अपने बिलों से निकल-निकल
 
 
उनींदे से घूम रहे हैं इधर-उधर
 
उनींदे से घूम रहे हैं इधर-उधर
  
 
कौए अपनी ख़ुरदरी आवाज़ में गा रहे हैं
 
कौए अपनी ख़ुरदरी आवाज़ में गा रहे हैं
 
 
और दूर वहाँ द्वीप के पीछे
 
और दूर वहाँ द्वीप के पीछे
 
 
सूर्य ऊपर उठ रहा है
 
सूर्य ऊपर उठ रहा है
  
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(रचनाकाल : 6 अप्रैल 1931)
  
(रचनाकाल : 6 अप्रैल 1931)
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'''मूल रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय'''
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'''लीजिए अब यही कविता मूल रूसी भाषा में पढ़िए'''
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                    Осип Мандельштам
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      Колют ресницы, в груди прикипела слеза…
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Колют ресницы. В груди прикипела слеза.
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Чую без страху, что будет и будет гроза.
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Кто-то чудной меня что-то торопит забыть.
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Душно — и все-таки до смерти хочется жить.
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С нар приподнявшись на первый раздавшийся звук,
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Дико и сонно еще озираясь вокруг,
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Так вот бушлатник шершавую песню поет
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В час, как полоской заря над острогом встает.
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1931 г.
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14:36, 9 जून 2025 के समय का अवतरण

पलकें चुभ रही हैं
हृदय से आँसू छलकने को आतुर
डर नहीं लगता फिर भी

पर ऐसा लगता है
आएगा
आएगा फिर-फिर
आएगा तूफ़ान

पर कोई बात है
कोई बात है अज़ीब
जो कह रही है मुझ से
सब कुछ भूल जा तू
बस, यही तेरा नसीब

बहुत उमस है
घुट रहा है दम
फिर भी मन करता है बेहद
जीवन यह जी लूँ मैं, हमदम

यह सुबह की शुरूआत है
जाग उठे हैं साँप, छ्छूंदर, घूस, नेवले
अपने बिलों से निकल-निकल
उनींदे से घूम रहे हैं इधर-उधर

कौए अपनी ख़ुरदरी आवाज़ में गा रहे हैं
और दूर वहाँ द्वीप के पीछे
सूर्य ऊपर उठ रहा है

(रचनाकाल : 6 अप्रैल 1931)

मूल रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय
लीजिए अब यही कविता मूल रूसी भाषा में पढ़िए
                    Осип Мандельштам
      Колют ресницы, в груди прикипела слеза…

Колют ресницы. В груди прикипела слеза.
Чую без страху, что будет и будет гроза.
Кто-то чудной меня что-то торопит забыть.
Душно — и все-таки до смерти хочется жить.

С нар приподнявшись на первый раздавшийся звук,
Дико и сонно еще озираясь вокруг,
Так вот бушлатник шершавую песню поет
В час, как полоской заря над острогом встает.

1931 г.