"मुक्तिबोध के न रहने पर / शमशेर बहादुर सिंह" के अवतरणों में अंतर
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ज़माने भर का कोई इस क़दर अपना न हो जाए | ज़माने भर का कोई इस क़दर अपना न हो जाए |
10:18, 15 जून 2025 के समय का अवतरण
ज़माने भर का कोई इस क़दर अपना न हो जाए
कि अपनी ज़िन्दगी ख़ुद आपको बेगाना हो जाए ।
सहर होगी ये शब बीतेगी और ऐसी सहर होगी
कि बेहोशी हमारे होश का पैमाना हो जाए ।
किरन फूटी है ज़ख़्मों के लहू से ׃ यह नया दिन है ׃
दिलों की रोशनी के फूल हैं — नज़राना हो जाए ।
ग़रीबुद्दहर थे हम; उठ गए दुनिया से; अच्छा है...
हमारे नाम से रौशन अगर वीराना हो जाए ।
बहुत खींचे तेरे मस्तों ने फ़ाक़े फिर भी कम खींचे
रियाज़त ख़त्म होती है अगर अफ़साना हो जाए ।
चमन खिलता था वह खिलता था, और वह खिलना कैसा था
कि जैसे हर कली से दर्द का याराना हो जाए ।
वह गहरे आसमानी रंग की चादर में लिपटा है
कफ़न सौ ज़ख़्म फूलों में वही पर्दा न हो जाए ।
इधर मैं हूँ उधर मैं हूँ, अजल, तू बीच में क्या है ?
फ़क़त इक नाम है, यह नाम भी धोका न हो जाए ।