"मैं, एक मौन सेतु / पूनम चौधरी" के अवतरणों में अंतर
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− | + | मैं शिक्षिका नहीं — | |
− | + | अब एक दस्तावेज़ हूँ, | |
− | + | जिसे हर सप्ताह | |
− | + | नवीनतम आदेशों की सिलवटों में | |
+ | फ़ाइलों के नीचे दबा दिया जाता है। | ||
− | + | कभी चाक से सपनों की रेखाएँ खींची थीं, | |
− | + | अब एक्सेल शीट में | |
− | + | भविष्य की प्रविष्टियाँ भरती हूँ — | |
− | + | उन बच्चों के नाम, | |
+ | जो अब भी अपना नाम ठीक से नहीं लिख पाते। | ||
− | + | हर माह एक नई योजना आती है, | |
− | + | नई भाषा में — | |
− | + | ‘लर्निंग आउटकम’, ‘इनोवेशन’, ‘प्रगति- सारिणी’ | |
− | + | पर कक्षा की ज़मीन वैसी ही है — | |
+ | झुकी हुई छत, | ||
+ | और बच्चों की सूनी, थकी हुई आँखें। | ||
− | + | वे आते हैं — | |
− | + | अधपेट, भीगे पाँवों में धूल लपेटे हुए, | |
− | + | कुछ तो स्कूल आने से पहले | |
− | + | घरों का बोझ ढोते हैं — | |
+ | न जूते, न लंचबॉक्स, न स्टेशनरी, | ||
+ | बस मन में एक छोटा-सा सपना — | ||
+ | "क्या मैं भी कुछ बन सकूँगा?" | ||
− | + | कक्षा में वे घबराते हैं — | |
− | + | पढ़ने से नहीं, | |
− | + | अपने कुपोषित शरीर की झिझक से। | |
− | + | वे नहीं पढ़ते पाठ्यपुस्तकों की पंक्तियाँ, | |
+ | वे पढ़ते हैं दीवारों की दरारें, | ||
+ | पेट की चुभन, | ||
+ | और माँ की आँखों में जमी खाली थाली। | ||
− | + | सरकारी योजनाएँ आती हैं — | |
− | + | ‘हर बच्चा सीख सकता है’, | |
− | + | मैं भी चाहती हूँ कि वे सीखें, | |
− | + | पर कौन समझाए आदेशों को | |
− | + | कि यह भूगोल नहीं, | |
− | + | भूख का इतिहास है। | |
− | + | मिड-डे मील — | |
− | + | जिसे पोषण माना गया, | |
− | + | कई बार शिक्षा का एकमात्र कारण बन जाता है। | |
− | + | कुछ बच्चों के लिए | |
+ | स्कूल का अर्थ है — | ||
+ | दो रोटियाँ। | ||
− | + | मेरे लिए | |
− | + | हर दिन एक द्वंद्व है — | |
− | + | पढ़ाना या मीटिंग में जाना, | |
− | + | पाठ तैयार करना या | |
− | + | काग़ज़ भरना कि कितने घरों में | |
− | + | शौचालय हैं या कितनों के आधार बने हैं। | |
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− | + | स्कूल चल रहा है — | |
− | + | पर किसी ने नहीं देखा | |
− | + | कि छत झुक चुकी है, | |
− | + | दीवारों पर लिखे नारों का रंग उतर चुका है। | |
− | + | ‘बेटी पढ़ाओ’ की दीवारों के नीचे | |
− | + | आज भी लड़कियाँ | |
+ | जल्दी घर लौट जाने की चिंता में बैठी हैं। | ||
− | + | डिजिटल इंडिया की बात होती है, | |
− | + | पर बच्चों ने माउस नहीं छुआ। | |
− | + | आदेश आया — “स्मार्ट क्लास चालू कीजिए”, | |
− | एक | + | मोबाइल से वीडियो चलाया — |
− | कि | + | बच्चे चौंक गए। |
− | + | किसी ने पहली बार | |
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+ | वे दया नहीं चाहते — | ||
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+ | सम्मान, संवाद, और एक भरोसेमंद किताब | ||
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+ | उनका नाम सच्चाई से लिखा हो। | ||
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+ | “हर बच्चा आगे बढ़े” — | ||
+ | यह वाक्य लिखते समय | ||
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+ | कि बच्चे किन रास्तों से आते हैं, | ||
+ | नंगे पाँव या उधड़ी चप्पलों में। | ||
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+ | शिक्षा का बजट हर साल बढ़ता है, | ||
+ | पर पानी की टंकी ख़ाली है, | ||
+ | और खेल का मैदान | ||
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+ | कभी-कभी | ||
+ | प्रगति रिपोर्ट भरते हुए | ||
+ | मैं झूठ का बोझ उठाती हूँ — | ||
+ | “संतोषजनक” भरते समय | ||
+ | मैं जानती हूँ — | ||
+ | वे अब भी जोड़-घटाना नहीं समझते। | ||
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+ | लेकिन ऊपर से फ़ोन आता है — | ||
+ | डेटा सही और बेहतर दिखना चाहिए। | ||
+ | मैं उसी व्यवस्था का भाग हूँ | ||
+ | जो शब्दों में सुंदर, | ||
+ | पर ज़मीनी हकीकत में | ||
+ | संघर्ष का पर्याय है। | ||
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+ | और फिर भी — | ||
+ | जब कोई बच्चा दोहराता है, | ||
+ | “आपने जो कहानी सुनाई , | ||
+ | वो मुझे याद है।” | ||
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+ | थोड़ा और जुड़ जाती हूँ। | ||
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+ | मैं शिक्षिका नहीं, | ||
+ | संभावनाओं के दो किनारों के मध्य, | ||
+ | मैं एक सेतु हूँ | ||
+ | बेशक डगमगाती हूँ | ||
+ | पर गिरने नहीं देती। | ||
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+ | व्यवस्था की चुप्पी में | ||
+ | एक मूक, अनसुनी, | ||
+ | आवाज हूँ। | ||
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07:35, 20 जून 2025 के समय का अवतरण
मैं शिक्षिका नहीं —
अब एक दस्तावेज़ हूँ,
जिसे हर सप्ताह
नवीनतम आदेशों की सिलवटों में
फ़ाइलों के नीचे दबा दिया जाता है।
कभी चाक से सपनों की रेखाएँ खींची थीं,
अब एक्सेल शीट में
भविष्य की प्रविष्टियाँ भरती हूँ —
उन बच्चों के नाम,
जो अब भी अपना नाम ठीक से नहीं लिख पाते।
हर माह एक नई योजना आती है,
नई भाषा में —
‘लर्निंग आउटकम’, ‘इनोवेशन’, ‘प्रगति- सारिणी’
पर कक्षा की ज़मीन वैसी ही है —
झुकी हुई छत,
और बच्चों की सूनी, थकी हुई आँखें।
वे आते हैं —
अधपेट, भीगे पाँवों में धूल लपेटे हुए,
कुछ तो स्कूल आने से पहले
घरों का बोझ ढोते हैं —
न जूते, न लंचबॉक्स, न स्टेशनरी,
बस मन में एक छोटा-सा सपना —
"क्या मैं भी कुछ बन सकूँगा?"
कक्षा में वे घबराते हैं —
पढ़ने से नहीं,
अपने कुपोषित शरीर की झिझक से।
वे नहीं पढ़ते पाठ्यपुस्तकों की पंक्तियाँ,
वे पढ़ते हैं दीवारों की दरारें,
पेट की चुभन,
और माँ की आँखों में जमी खाली थाली।
सरकारी योजनाएँ आती हैं —
‘हर बच्चा सीख सकता है’,
मैं भी चाहती हूँ कि वे सीखें,
पर कौन समझाए आदेशों को
कि यह भूगोल नहीं,
भूख का इतिहास है।
मिड-डे मील —
जिसे पोषण माना गया,
कई बार शिक्षा का एकमात्र कारण बन जाता है।
कुछ बच्चों के लिए
स्कूल का अर्थ है —
दो रोटियाँ।
मेरे लिए
हर दिन एक द्वंद्व है —
पढ़ाना या मीटिंग में जाना,
पाठ तैयार करना या
काग़ज़ भरना कि कितने घरों में
शौचालय हैं या कितनों के आधार बने हैं।
स्कूल चल रहा है —
पर किसी ने नहीं देखा
कि छत झुक चुकी है,
दीवारों पर लिखे नारों का रंग उतर चुका है।
‘बेटी पढ़ाओ’ की दीवारों के नीचे
आज भी लड़कियाँ
जल्दी घर लौट जाने की चिंता में बैठी हैं।
डिजिटल इंडिया की बात होती है,
पर बच्चों ने माउस नहीं छुआ।
आदेश आया — “स्मार्ट क्लास चालू कीजिए”,
मोबाइल से वीडियो चलाया —
बच्चे चौंक गए।
किसी ने पहली बार
स्क्रीन में खुद को देखा।
वे दया नहीं चाहते —
चाहते हैं —
सम्मान, संवाद, और एक भरोसेमंद किताब
जिसके भीतर
उनका नाम सच्चाई से लिखा हो।
“हर बच्चा आगे बढ़े” —
यह वाक्य लिखते समय
कभी सोचती हूँ,
क्या कोई देखता है
कि बच्चे किन रास्तों से आते हैं,
नंगे पाँव या उधड़ी चप्पलों में।
शिक्षा का बजट हर साल बढ़ता है,
पर पानी की टंकी ख़ाली है,
और खेल का मैदान
काग़ज़ से बाहर नहीं आता।
कभी-कभी
प्रगति रिपोर्ट भरते हुए
मैं झूठ का बोझ उठाती हूँ —
“संतोषजनक” भरते समय
मैं जानती हूँ —
वे अब भी जोड़-घटाना नहीं समझते।
लेकिन ऊपर से फ़ोन आता है —
डेटा सही और बेहतर दिखना चाहिए।
मैं उसी व्यवस्था का भाग हूँ
जो शब्दों में सुंदर,
पर ज़मीनी हकीकत में
संघर्ष का पर्याय है।
और फिर भी —
जब कोई बच्चा दोहराता है,
“आपने जो कहानी सुनाई ,
वो मुझे याद है।”
तो टूटते हुए भी
थोड़ा और जुड़ जाती हूँ।
मैं शिक्षिका नहीं,
संभावनाओं के दो किनारों के मध्य,
मैं एक सेतु हूँ
बेशक डगमगाती हूँ
पर गिरने नहीं देती।
मैं
व्यवस्था की चुप्पी में
एक मूक, अनसुनी,
आवाज हूँ।
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