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"मैं, एक मौन सेतु / पूनम चौधरी" के अवतरणों में अंतर

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वर्षा
+
मैं शिक्षिका नहीं —
जैसे व्यथित आकाश ने
+
अब एक दस्तावेज़ हूँ,
अधीर होकर झुकी धरती की पीठ पर
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जिसे हर सप्ताह
अपनी उँगलियों से करुणा उकेर दी हो।
+
नवीनतम आदेशों की सिलवटों में
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फ़ाइलों के नीचे दबा दिया जाता है।
  
न कोई उद्घोष,
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कभी चाक से सपनों की रेखाएँ खींची थीं,
न जयघोष
+
अब एक्सेल शीट में
बस उपेक्षित धरा को पहुँचानी हो
+
भविष्य की प्रविष्टियाँ भरती हूँ
एक मौन सांत्वना।
+
उन बच्चों के नाम,
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जो अब भी अपना नाम ठीक से नहीं लिख पाते।
  
बरसाती स्नेह
+
हर माह एक नई योजना आती है,
उन झाड़ियों पर भी,
+
नई भाषा में
जो पथरीली चट्टानों के अंक में
+
‘लर्निंग आउटकम’, ‘इनोवेशन’, ‘प्रगति- सारिणी’
अस्मिताहीन पल रही होती हैं।
+
पर कक्षा की ज़मीन वैसी ही है —
 +
झुकी हुई छत,
 +
और बच्चों की सूनी, थकी हुई आँखें।
  
वह सींचती है
+
वे आते हैं
सूखी पत्तियों को,
+
अधपेट, भीगे पाँवों में धूल लपेटे हुए,
जिन्हें तनुजीव भी
+
कुछ तो स्कूल आने से पहले
आश्रय योग्य नहीं समझता
+
घरों का बोझ ढोते हैं —
 +
न जूते, न लंचबॉक्स, न स्टेशनरी,
 +
बस मन में एक छोटा-सा सपना —
 +
"क्या मैं भी कुछ बन सकूँगा?"
  
उसकी हर बूँद
+
कक्षा में वे घबराते हैं
जैसे किसी अज्ञात देवी की अंजलि हो,
+
पढ़ने से नहीं,
जो बिना पूछे, बिना चुने
+
अपने कुपोषित शरीर की झिझक से।
सबको देती है समान अधिकार।
+
वे नहीं पढ़ते पाठ्यपुस्तकों की पंक्तियाँ,
 +
वे पढ़ते हैं दीवारों की दरारें,
 +
पेट की चुभन,
 +
और माँ की आँखों में जमी खाली थाली।
  
वर्षा आती है
+
सरकारी योजनाएँ आती हैं
कभी उद्दंड हवाओं के संग,
+
‘हर बच्चा सीख सकता है’,
कभी मौन, धूसर बादलों में छिपकर,
+
मैं भी चाहती हूँ कि वे सीखें,
और कभी यूँ ही —
+
पर कौन समझाए आदेशों को
जैसे मन के किसी कोने से
+
कि यह भूगोल नहीं,
कोई क्षमा चुपचाप झरने लगी हो।
+
भूख का इतिहास है।
  
वह पूछती नहीं
+
मिड-डे मील
पेड़ फल देगा या नहीं,
+
जिसे पोषण माना गया,
झील में कमल खिला है या नहीं,
+
कई बार शिक्षा का एकमात्र कारण बन जाता है।
या मिट्टी में कीड़े हैं या नहीं।
+
कुछ बच्चों के लिए
 +
स्कूल का अर्थ है
 +
दो रोटियाँ।
  
वर्षा —
+
मेरे लिए
वह धर्म नहीं
+
हर दिन एक द्वंद्व है —
जो फल की शर्त पर बाँटा जाए।
+
पढ़ाना या मीटिंग में जाना,
वह ईश्वर है —
+
पाठ तैयार करना या
जो सबसे पहले
+
काग़ज़ भरना कि कितने घरों में
उन्हें जल देता है
+
शौचालय हैं या कितनों के आधार बने हैं।
जिन्हें कोई नहीं पूछता।
+
  
जैसे ईश्वर
+
स्कूल चल रहा है
पहुँचता है वहाँ भी
+
पर किसी ने नहीं देखा
जहाँ नहीं की जाती प्रार्थना,
+
कि छत झुक चुकी है,
नहीं जलाए जाते दीप,
+
दीवारों पर लिखे नारों का रंग उतर चुका है।
जहाँ  नहीं होती है आस
+
‘बेटी पढ़ाओ’ की दीवारों के नीचे
कि कोई सुन रहा है।
+
आज भी लड़कियाँ
 +
जल्दी घर लौट जाने की चिंता में बैठी हैं।
  
वर्षा —
+
डिजिटल इंडिया की बात होती है,
एक करुणा,
+
पर बच्चों ने माउस नहीं छुआ।
एक मौन न्याय,
+
आदेश आया — “स्मार्ट क्लास चालू कीजिए”,
एक स्वीकृति
+
मोबाइल से वीडियो चलाया —
कि जीवन सिर्फ समर्थ का नहीं,
+
बच्चे चौंक गए।
असमर्थ का भी अधिकार है।
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किसी ने पहली बार
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स्क्रीन में खुद को देखा।
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वे दया नहीं चाहते —
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चाहते हैं —
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सम्मान, संवाद, और एक भरोसेमंद किताब
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जिसके भीतर
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उनका नाम सच्चाई से लिखा हो।
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“हर बच्चा आगे बढ़े”
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यह वाक्य लिखते समय
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कभी सोचती हूँ,
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क्या कोई देखता है
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कि बच्चे किन रास्तों से आते हैं,
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नंगे पाँव या उधड़ी चप्पलों में।
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शिक्षा का बजट हर साल बढ़ता है,
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पर पानी की टंकी ख़ाली है,
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और खेल का मैदान
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काग़ज़ से बाहर नहीं आता।
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कभी-कभी
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प्रगति रिपोर्ट भरते हुए
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मैं झूठ का बोझ उठाती हूँ —
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“संतोषजनक” भरते समय
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मैं जानती हूँ —
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वे अब भी जोड़-घटाना नहीं समझते।
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लेकिन ऊपर से फ़ोन आता है —
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डेटा सही और बेहतर दिखना चाहिए।
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मैं उसी व्यवस्था का भाग हूँ
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जो शब्दों में सुंदर,
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पर ज़मीनी हकीकत में
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संघर्ष का पर्याय है।
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और फिर भी —
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जब कोई बच्चा दोहराता है,
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“आपने जो कहानी सुनाई ,
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वो मुझे याद है।”
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तो टूटते हुए भी
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थोड़ा और जुड़ जाती हूँ।
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मैं शिक्षिका नहीं,
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संभावनाओं के दो किनारों के मध्य,
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मैं एक सेतु हूँ
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बेशक डगमगाती हूँ
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पर गिरने नहीं देती।
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मैं
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व्यवस्था की चुप्पी में
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एक मूक, अनसुनी,
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आवाज हूँ।
  
 
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07:35, 20 जून 2025 के समय का अवतरण

मैं शिक्षिका नहीं —
अब एक दस्तावेज़ हूँ,
जिसे हर सप्ताह
नवीनतम आदेशों की सिलवटों में
फ़ाइलों के नीचे दबा दिया जाता है।

कभी चाक से सपनों की रेखाएँ खींची थीं,
अब एक्सेल शीट में
भविष्य की प्रविष्टियाँ भरती हूँ —
उन बच्चों के नाम,
जो अब भी अपना नाम ठीक से नहीं लिख पाते।

हर माह एक नई योजना आती है,
नई भाषा में —
‘लर्निंग आउटकम’, ‘इनोवेशन’, ‘प्रगति- सारिणी’
पर कक्षा की ज़मीन वैसी ही है —
 झुकी हुई छत,
और बच्चों की सूनी, थकी हुई आँखें।

वे आते हैं —
अधपेट, भीगे पाँवों में धूल लपेटे हुए,
कुछ तो स्कूल आने से पहले
घरों का बोझ ढोते हैं —
न जूते, न लंचबॉक्स, न स्टेशनरी,
बस मन में एक छोटा-सा सपना —
"क्या मैं भी कुछ बन सकूँगा?"

कक्षा में वे घबराते हैं —
पढ़ने से नहीं,
अपने कुपोषित शरीर की झिझक से।
वे नहीं पढ़ते पाठ्यपुस्तकों की पंक्तियाँ,
वे पढ़ते हैं दीवारों की दरारें,
पेट की चुभन,
और माँ की आँखों में जमी खाली थाली।

सरकारी योजनाएँ आती हैं —
‘हर बच्चा सीख सकता है’,
मैं भी चाहती हूँ कि वे सीखें,
पर कौन समझाए आदेशों को
कि यह भूगोल नहीं,
भूख का इतिहास है।

मिड-डे मील —
जिसे पोषण माना गया,
कई बार शिक्षा का एकमात्र कारण बन जाता है।
कुछ बच्चों के लिए
स्कूल का अर्थ है —
दो रोटियाँ।

मेरे लिए
हर दिन एक द्वंद्व है —
पढ़ाना या मीटिंग में जाना,
पाठ तैयार करना या
काग़ज़ भरना कि कितने घरों में
शौचालय हैं या कितनों के आधार बने हैं।

स्कूल चल रहा है —
पर किसी ने नहीं देखा
कि छत झुक चुकी है,
दीवारों पर लिखे नारों का रंग उतर चुका है।
‘बेटी पढ़ाओ’ की दीवारों के नीचे
आज भी लड़कियाँ
जल्दी घर लौट जाने की चिंता में बैठी हैं।

डिजिटल इंडिया की बात होती है,
पर बच्चों ने माउस नहीं छुआ।
आदेश आया — “स्मार्ट क्लास चालू कीजिए”,
मोबाइल से वीडियो चलाया —
बच्चे चौंक गए।
किसी ने पहली बार
स्क्रीन में खुद को देखा।

वे दया नहीं चाहते —
चाहते हैं —
सम्मान, संवाद, और एक भरोसेमंद किताब
जिसके भीतर
उनका नाम सच्चाई से लिखा हो।

“हर बच्चा आगे बढ़े” —
यह वाक्य लिखते समय
कभी सोचती हूँ,
क्या कोई देखता है
कि बच्चे किन रास्तों से आते हैं,
नंगे पाँव या उधड़ी चप्पलों में।

शिक्षा का बजट हर साल बढ़ता है,
पर पानी की टंकी ख़ाली है,
और खेल का मैदान
काग़ज़ से बाहर नहीं आता।

कभी-कभी
प्रगति रिपोर्ट भरते हुए
मैं झूठ का बोझ उठाती हूँ —
“संतोषजनक” भरते समय
मैं जानती हूँ —
वे अब भी जोड़-घटाना नहीं समझते।

लेकिन ऊपर से फ़ोन आता है —
डेटा सही और बेहतर दिखना चाहिए।
मैं उसी व्यवस्था का भाग हूँ
जो शब्दों में सुंदर,
पर ज़मीनी हकीकत में
संघर्ष का पर्याय है।

और फिर भी —
जब कोई बच्चा दोहराता है,
“आपने जो कहानी सुनाई ,
वो मुझे याद है।”
तो टूटते हुए भी
थोड़ा और जुड़ जाती हूँ।

मैं शिक्षिका नहीं,
संभावनाओं के दो किनारों के मध्य,
मैं एक सेतु हूँ
बेशक डगमगाती हूँ
पर गिरने नहीं देती।

मैं
व्यवस्था की चुप्पी में
एक मूक, अनसुनी,
आवाज हूँ।

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