जुस्तजू बोसा-ए-दिलदार नहीं थी, कि जो है
ज़िन्दगी हुस्न परस्तार नहीं थी, कि जो है
उसके आने से 'रक़ीब' आई है जीवन में खुशीख़ुशी
हक़ में दुनिया मेरे गुलज़ार नहीं थी, कि जो है
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कुछ तीस बरस पास समुन्दर के रहा हूँ जो आँखों ने बड़ी देर से दरिया तो चलो ठीक है सहरा नहीं देखालेगा
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सुकूँ पज़ीर नहीं हैं गड़े हुए मुर्दे
उखाड़िए न इन्हें, ये वबाल कर देंगे
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उलझा ये जनेऊ तो सुलझता नहीं तुमसेउस से सुलझाओगे सुलझाएगा कैसे भला महबूब के गेसू43लेकर वो कई साथ में आती है हमेशाकहते हैं मुसीबत कभी तनहा नहीं आती44हम चैन से बैठेंगे किसी हाल न जब तक भारत का ये परचम वहाँ फहरा नहीं लेंगे45आओ कुछ ऐसा करें आग नफ़रत की बुझेहम भी समझाएं इन्हें, तुम भी समझाओ उन्हें
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