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"लुत्फ़ ख़ुदी यही है कि शान-ए-बक़ा रहूँ / रतन पंडोरवी" के अवतरणों में अंतर
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किस हौसले पे तुझ को ख़ुदा मानता रहूँ। | किस हौसले पे तुझ को ख़ुदा मानता रहूँ। | ||
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इक तू कि मेरे दिल ही में छुप कर पड़ा रहे | इक तू कि मेरे दिल ही में छुप कर पड़ा रहे | ||
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तू ही बता कि ये कोई इंसाफ़ तो नहीं | तू ही बता कि ये कोई इंसाफ़ तो नहीं |
14:28, 6 जुलाई 2025 के समय का अवतरण
लुत्फ़ ख़ुदी यही है कि शान-ए-बक़ा रहूँ
इंसान के लिबास में बन कर ख़ुदा रहूँ।
जब तुझ को मेरे सामने आने से आर है
किस हौसले पे तुझ को ख़ुदा मानता रहूँ।
पर्दे में इक झलक सी दिखाने से फ़ायदा
जल्वे को आम कर कि तुझे देखता रहूँ।
इक तू कि मेरे दिल ही में छुप कर पड़ा रहे
इक मैं कि हर चहार तरफ़ ढूँढता रहूँ।
तू ही बता कि ये कोई इंसाफ़ तो नहीं
तेरा ही जुज़्व होने पे तुझ से जुदा रहूँ।
भेजा है ऐ ख़ुदा मुझे क्या तू ने इस लिए
हर वक़्त ज़िंदगी में रहीन-ए-बला रहूँ।
हर गाम मुझ को काबा ही मक़्सूद है रतन
आया है वो मक़ाम कि हर दम झुका रहूँ।