"तुम्बे की गूँज / जयप्रकाश मानस" के अवतरणों में अंतर
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+ | जैसे कोई पुराना गीत आख़िरी साँस लेता हो। | ||
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+ | उसकी हथेलियाँ सपनों की डोर हैं | ||
+ | पानी छपाक-छपाक करता है | ||
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+ | बस्तर की एक स्मृति तैरती है | ||
+ | तुम्बे की गंध में बसी -इंद्रावती की लहरों से उगी। | ||
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+ | मशीनों की धूल घुली है। | ||
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+ | जो माड़िया-गोंडी गीतों का मेला था, | ||
+ | अब तुम्बे की खोखली गूँज है। | ||
+ | धरती टूटी | ||
+ | जहाँ पानी गिरा -वहाँ गीत नहीं | ||
+ | एक चीख उगी। | ||
+ | लुगड़े का रंग उस चीख में डूबा | ||
+ | चीख में बस्तर की लाठी-भाला गूंजा। | ||
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+ | मैं बस्तर की लौकी की लता से बना हूँ। | ||
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+ | उनके हक़ की आख़िरी पुकार बहती है। | ||
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+ | उसकी चुप्पी में बस्तर की धरती साँस लेती है। | ||
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+ | अपने गीतों को | ||
+ | पानी की तरह कहीं और ले जाती है। | ||
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19:55, 8 जुलाई 2025 के समय का अवतरण
एक औरत खड़ी है तुम्बा लिये
जैसे बस्तर का बाँस - हवा में थरथराता हो।
उसके सपने हरे पत्तों में लिपटे थे
अब जड़ों में आग की सुलगन है।
पानी की धार गिरती है
धरती पर गोल-गोल चक्कर बनाती है
जैसे कोई पुराना गीत आख़िरी साँस लेता हो।
दूसरी औरत बैठी है
जैसे मड़िया का गौर रेला
थककर धरती पर झुका हो।
उसकी हथेलियाँ सपनों की डोर हैं
पानी छपाक-छपाक करता है
मगर हथेली में नदी नहीं
जंगल की कटी लकड़ी की चुभन है।
पानी के बीच
बस्तर की एक स्मृति तैरती है
तुम्बे की गंध में बसी -इंद्रावती की लहरों से उगी।
अब उस गंध में
मशीनों की धूल घुली है।
जंगल
जो माड़िया-गोंडी गीतों का मेला था,
अब तुम्बे की खोखली गूँज है।
धरती टूटी
जहाँ पानी गिरा -वहाँ गीत नहीं
एक चीख उगी।
लुगड़े का रंग उस चीख में डूबा
चीख में बस्तर की लाठी-भाला गूंजा।
तुम्बा बोलता है :
मैं बस्तर की लौकी की लता से बना हूँ।
मेरे पानी में गोंडवाना के सपने थे।
अब जंगल कटे
पोखर, झरने सूखे
मेरे पानी में सपने नहीं
उनके हक़ की आख़िरी पुकार बहती है।
तुम्बा चुप है
उसकी चुप्पी में बस्तर की धरती साँस लेती है।
वह धरती जो टूटकर भी
अपने गीतों को
पानी की तरह कहीं और ले जाती है।
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