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"कतरनों को कभी तह नहीं किया / जयप्रकाश मानस" के अवतरणों में अंतर

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तो यादों का बोझ हल्क़ा हो।"
  
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कभी तह नहीं किया
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बस बिखेर दिया
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मन के आँगन में
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कभी हवा में उड़तीं
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कभी ठहरकर - पुरानी बातें सुनातीं।
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एक कतरन बोली - मुझे छोड़ दे, मैं बोझ हूँ।
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पर मैंने उसे
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दिल के तहखाने में
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सँभाल लिया ।
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जैसे नदी का किनारा
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जो बहता नहीं-बस ठहरता है।
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एक छोटा-सा मंदिर,
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जहाँ पूजा जाता है
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वो, जो कभी पूरा नहीं हुआ।
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कभी सोचता हूँ-
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इन कतरनों को
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उड़ने दूँ हवा में - पंछी की तरह।
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पर फिर डर लगता है -
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क्या बचेगा
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अगर मोह की ये गठरियाँ
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खुल गईं?
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तो मैं बस इन्हें सिलता हूँ
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धीरे-धीरे
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एक अनगढ़ कविता में
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कतरनें अब भी बिखरी हैं
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पर अब वे
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मेरे मन की धुन में नाच उठती हैं।
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19:56, 8 जुलाई 2025 के समय का अवतरण

कमीज़ के कपड़े में
यौवन की सिलवटें थीं,
हर धागे में
एक अधूरी कहानी उगा करती थी।
दर्जी की कैंची काटती थी कपड़े को
पर सपनों को नहीं ।

बची कतरनें
जैसे मन के कोने में अटके हुए ख्याल
न छोड़े जाते - न सिले जाते।
मैंने कहा -
"इनसे रूमाल बना दो या स्कार्फ़
जो गले में लिपटे
तो यादों का बोझ हल्क़ा हो।"

कतरनें जमा होती रहीं
जैसे भीतर
मोह की छोटी-छोटी गठरियाँ ।
हर कतरन में
एक रंग
एक गंध
एक आधा-लिखा ख़त ।
कभी नीला
जैसे सुबह का आसमान
कभी लाल
जैसे साँझ की लज्जा ।

इन कतरनों को
कभी तह नहीं किया
बस बिखेर दिया
मन के आँगन में
कभी हवा में उड़तीं
कभी ठहरकर - पुरानी बातें सुनातीं।
एक कतरन बोली - मुझे छोड़ दे, मैं बोझ हूँ।
पर मैंने उसे
दिल के तहखाने में
सँभाल लिया ।

कतरनों का मोह
जैसे नदी का किनारा
जो बहता नहीं-बस ठहरता है।
हर कतरन
एक छोटा-सा मंदिर,
जहाँ पूजा जाता है
वो, जो कभी पूरा नहीं हुआ।

कभी सोचता हूँ-
इन कतरनों को
उड़ने दूँ हवा में - पंछी की तरह।
पर फिर डर लगता है -
क्या बचेगा
अगर मोह की ये गठरियाँ
खुल गईं?


तो मैं बस इन्हें सिलता हूँ
धीरे-धीरे
एक अनगढ़ कविता में
कतरनें अब भी बिखरी हैं
पर अब वे
मेरे मन की धुन में नाच उठती हैं।
-0-