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"जाहिल का बयान / जयप्रकाश मानस" के अवतरणों में अंतर

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लटकता है, पर पानी की छुअन नहीं।
  
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वह कहता है - "मैं ही आकाश"
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जैसे बिजली का खंभा तारों को गिन ले
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वह कहता है - "मेरा रास्ता"
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जैसे साइकिल की चेन पहाड़ चढ़ जाए।
  
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उसके पीछे अनुयायी - जैसे पतंग के पीछे धागे
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न उड़ते, न कटते, बस लटके रहते
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उनके कान - जैसे पुराने रंग का डिब्बा
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जो हर शोर को सोना समझ ले।
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जाहिल का बयान
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जैसे प्लास्टिक की थैली में हवा भर दी
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उड़ती है पर कहीं ठहरती नहीं
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जैसे खाली डोल में चम्मच खनक रही हो।
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वे कहते हैं - "वही सही"
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जैसे अँधेरे में दीया बुझा और रात को रात कह दिया।
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उनका विश्वास, जैसे रेत का टीला
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हवा चली, और सब बिखर गया।
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चुनौती है फिर भी
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जाहिल का शोर अनुयायियों की भीड़ में गूँजता है
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जैसे बाज़ार का हॉर्न सन्नाटे को चीर दे
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उनके कंधे, जैसे लकड़ी का तख्ता
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जो जाहिल का बोझ ढोते हैं पर टूटते नहीं।
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करें क्या, जब भीड़ ही जंगल बन जाए
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और जंगल में पेड़ की बात कोई न सुने?
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जाहिल का बयान
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जैसे टूटी घड़ी का काँटा
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चलता है, पर वक़्त नहीं बताता।
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और हम, हम किनारे खड़े
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जैसे मेले का ठहरा झूला - जो हवा को थामे।
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चुप रहें, या बोलें
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जाहिल का मेला, अनुयायियों का रेला
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सब रेत के खेल में उड़ जाता है।
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20:02, 8 जुलाई 2025 के समय का अवतरण

जाहिल बोलता है, जैसे रेडियो का तार टूटा हो
आवाज़ निकलती है, पर गीत नहीं, बस खटखट
उसके शब्द - जैसे सूखे कुएँ का गट्टा
लटकता है, पर पानी की छुअन नहीं।

वह कहता है - "मैं ही आकाश"
जैसे बिजली का खंभा तारों को गिन ले
वह कहता है - "मेरा रास्ता"
जैसे साइकिल की चेन पहाड़ चढ़ जाए।

उसके पीछे अनुयायी - जैसे पतंग के पीछे धागे
न उड़ते, न कटते, बस लटके रहते
उनके कान - जैसे पुराने रंग का डिब्बा
जो हर शोर को सोना समझ ले।

जाहिल का बयान
जैसे प्लास्टिक की थैली में हवा भर दी
उड़ती है पर कहीं ठहरती नहीं
अनुयायी ताली बजाते हैं
जैसे खाली डोल में चम्मच खनक रही हो।

वे कहते हैं - "वही सही"
जैसे अँधेरे में दीया बुझा और रात को रात कह दिया।
उनका विश्वास, जैसे रेत का टीला
हवा चली, और सब बिखर गया।

चुनौती है फिर भी
जाहिल का शोर अनुयायियों की भीड़ में गूँजता है
जैसे बाज़ार का हॉर्न सन्नाटे को चीर दे
उनके कंधे, जैसे लकड़ी का तख्ता
जो जाहिल का बोझ ढोते हैं पर टूटते नहीं।

करें क्या, जब भीड़ ही जंगल बन जाए
और जंगल में पेड़ की बात कोई न सुने?
जाहिल का बयान
जैसे टूटी घड़ी का काँटा
चलता है, पर वक़्त नहीं बताता।

और हम, हम किनारे खड़े
जैसे मेले का ठहरा झूला - जो हवा को थामे।
चुप रहें, या बोलें
जाहिल का मेला, अनुयायियों का रेला
सब रेत के खेल में उड़ जाता है।
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