"गौरैया: पृथ्वी की लुप्त होती व्याकरण / पूनम चौधरी" के अवतरणों में अंतर
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+ | मैं गौरैया हूँ — | ||
+ | एक भूली स्मृति, | ||
+ | जो तुम्हारे बचपन की मिट्टी में दबी थी, | ||
+ | एक धूप की किरण, | ||
+ | जो दालान से फिसलती हुई | ||
+ | तुम्हारी हथेलियों तक आती थी। | ||
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+ | मैं वह अलिखित राग हूँ, | ||
+ | जिसकी संवेदना में | ||
+ | तुमने जीवन के स्वप्न सजाए थे। | ||
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+ | मैंने कभी नहीं चाहे महल, | ||
+ | न सोने-जड़े निर्जन झरोखे। | ||
+ | मुझे प्रेम था | ||
+ | काठ की खपरैल से, | ||
+ | जहाँ से रिसता आकाश | ||
+ | मेरे पंखों में भरता था उड़ने की हिम्मत। | ||
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+ | मैं उस स्त्री की आँखों में बसा प्रेम थी, | ||
+ | जो चूल्हे के धुएँ के पार, | ||
+ | मेरे पंखों की फुर्ती देखकर | ||
+ | मुस्करा उठती थी। | ||
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+ | मैं उस नन्ही हथेली की ऊष्मा थी, | ||
+ | जो मिट्टी सने रोटी के टुकड़े | ||
+ | सहजता से छोड़ देता था मेरे लिए। | ||
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+ | अब | ||
+ | गोधूलियाँ | ||
+ | डिजिटल कैलेंडरों में सीमित हो गई हैं। | ||
+ | प्रसन्नता | ||
+ | एक इमोजी में बदलकर | ||
+ | स्क्रीन पर चमकती है, | ||
+ | पर अंतर को नहीं छूती | ||
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+ | मेरे लिए | ||
+ | आकाश केवल विस्तार नहीं था — | ||
+ | वह संवाद था। | ||
+ | हर चहचहाहट एक पंक्ति थी, | ||
+ | मेरी उड़ान एक मौन कविता। | ||
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+ | आज वही आकाश | ||
+ | होर्डिंग्स, टावरों और काँच के नीचे | ||
+ | दम तोड़ रहा है। | ||
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+ | मुझे नहीं चाहिए | ||
+ | सम्मान, | ||
+ | न इतिहास में अंकन | ||
+ | न डाक टिकट में नाम, | ||
+ | न प्रतीक बनना। | ||
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+ | मुझे चाहिए | ||
+ | सिर्फ एक क्षण — | ||
+ | जहाँ मैं लौटा सकूँ | ||
+ | नन्हे कदमों को | ||
+ | दौड़ने का विश्वास। | ||
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+ | जहाँ मेरा चहचहाना | ||
+ | किसी स्त्री की थकी साँस में | ||
+ | फिर से जीवन का राग भर दे। | ||
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+ | कोई एक अपराह्न, | ||
+ | जहाँ मुझे देखकर | ||
+ | किसी के भीतर | ||
+ | आस की लौ फिर से जल उठे। | ||
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+ | तुम कहते हो — | ||
+ | "गौरैया विलुप्त हो रही है।" | ||
+ | मैं पूछती हूँ — | ||
+ | "तुम्हारी संवेदना पहले गई, | ||
+ | या मेरी उपस्थिति?" | ||
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+ | वह शाखाओं पर पड़ा झूला | ||
+ | तुम्हारी और मेरी साझा विरासत थी। | ||
+ | अब न वह शाखा रही, न झूला, | ||
+ | न वह खिड़की | ||
+ | जो आकाश से संवाद करती थी। | ||
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+ | तुमने बंद कर दिए हैं | ||
+ | वे सारे द्वार, | ||
+ | जिनसे प्रकृति | ||
+ | तुम्हारे भीतर उतरती थी। | ||
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+ | तुम्हारे आँगन में | ||
+ | अब न मिट्टी है, | ||
+ | न दाना, | ||
+ | न वह धूप की पट्टी | ||
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+ | अपने मातृत्व को सेती थी। | ||
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+ | उन दीवारों में | ||
+ | अब केवल गूँजती हैं | ||
+ | अधूरे रागों की प्रतिध्वनियाँ — | ||
+ | एक ऐसा संगीत, | ||
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+ | मैं उस राग की पहली स्वर थी — | ||
+ | अब चुप हूँ। | ||
+ | मेरे न होने से | ||
+ | तुम्हारा स्पर्श भी निस्तेज है। | ||
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+ | और तुम्हारा ही विकास | ||
+ | तुम्हें भीतर से निचोड़ देगा — | ||
+ | तब तुम जानोगे | ||
+ | मेरा और धरती का संबंध। | ||
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+ | और जब तुम | ||
+ | धरती के मौन में | ||
+ | उसकी पीड़ा सुनोगे, | ||
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+ | तुम्हारे भीतर सबसे अधिक गूँजेगी। | ||
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+ | और शायद तब | ||
+ | तुम समझ पाओगे — | ||
+ | गौरैया केवल एक पक्षी नहीं थी, | ||
+ | वह धरती की अंतिम भाषा थी। | ||
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+ | यदि सच में चाहो, | ||
+ | तो फिर गूँज सकता है | ||
+ | मेरा चहचहाना — | ||
+ | किसी बच्चे की हँसी में, | ||
+ | किसी खिड़की पर रखे दाने में, | ||
+ | या किसी स्त्री की आँखों के उजास में: | ||
+ | पर उसके लिए | ||
+ | तुम्हें तोड़ना होगा | ||
+ | अपने भीतर का मौन, | ||
+ | त्यागनी होगी | ||
+ | प्रकृति को नियंत्रित करने की ज़िद, | ||
+ | और स्वीकारनी होगी | ||
+ | अपनी सीमाएँ | ||
+ | और अपनी क्षणभंगुरता। | ||
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14:08, 21 जुलाई 2025 के समय का अवतरण
मैं गौरैया हूँ —
एक भूली स्मृति,
जो तुम्हारे बचपन की मिट्टी में दबी थी,
एक धूप की किरण,
जो दालान से फिसलती हुई
तुम्हारी हथेलियों तक आती थी।
मैं वह अलिखित राग हूँ,
जिसकी संवेदना में
तुमने जीवन के स्वप्न सजाए थे।
मैंने कभी नहीं चाहे महल,
न सोने-जड़े निर्जन झरोखे।
मुझे प्रेम था
काठ की खपरैल से,
जहाँ से रिसता आकाश
मेरे पंखों में भरता था उड़ने की हिम्मत।
मैं उस स्त्री की आँखों में बसा प्रेम थी,
जो चूल्हे के धुएँ के पार,
मेरे पंखों की फुर्ती देखकर
मुस्करा उठती थी।
मैं उस नन्ही हथेली की ऊष्मा थी,
जो मिट्टी सने रोटी के टुकड़े
सहजता से छोड़ देता था मेरे लिए।
अब
गोधूलियाँ
डिजिटल कैलेंडरों में सीमित हो गई हैं।
प्रसन्नता
एक इमोजी में बदलकर
स्क्रीन पर चमकती है,
पर अंतर को नहीं छूती
मेरे लिए
आकाश केवल विस्तार नहीं था —
वह संवाद था।
हर चहचहाहट एक पंक्ति थी,
मेरी उड़ान एक मौन कविता।
आज वही आकाश
होर्डिंग्स, टावरों और काँच के नीचे
दम तोड़ रहा है।
मुझे नहीं चाहिए
सम्मान,
न इतिहास में अंकन
न डाक टिकट में नाम,
न प्रतीक बनना।
मुझे चाहिए
सिर्फ एक क्षण —
जहाँ मैं लौटा सकूँ
नन्हे कदमों को
दौड़ने का विश्वास।
जहाँ मेरा चहचहाना
किसी स्त्री की थकी साँस में
फिर से जीवन का राग भर दे।
कोई एक अपराह्न,
जहाँ मुझे देखकर
किसी के भीतर
आस की लौ फिर से जल उठे।
तुम कहते हो —
"गौरैया विलुप्त हो रही है।"
मैं पूछती हूँ —
"तुम्हारी संवेदना पहले गई,
या मेरी उपस्थिति?"
वह शाखाओं पर पड़ा झूला
तुम्हारी और मेरी साझा विरासत थी।
अब न वह शाखा रही, न झूला,
न वह खिड़की
जो आकाश से संवाद करती थी।
तुमने बंद कर दिए हैं
वे सारे द्वार,
जिनसे प्रकृति
तुम्हारे भीतर उतरती थी।
तुम्हारे आँगन में
अब न मिट्टी है,
न दाना,
न वह धूप की पट्टी
जिसमें मैं
अपने मातृत्व को सेती थी।
तुमने बनाए
काँच के महल —
पक्षियों से 'सुरक्षित',
पर जीवन से खाली।
उन दीवारों में
अब केवल गूँजती हैं
अधूरे रागों की प्रतिध्वनियाँ —
एक ऐसा संगीत,
जो कभी पूर्ण नहीं हुआ।
मैं उस राग की पहली स्वर थी —
अब चुप हूँ।
मेरे न होने से
तुम्हारा स्पर्श भी निस्तेज है।
तुम्हारे भीतर का आकाश
दरक गया है
कंक्रीट की कठोरता में।
एक दिन
जब तुम्हारे भीतर भी
संवेदना सूख जाएगी,
और तुम्हारा ही विकास
तुम्हें भीतर से निचोड़ देगा —
तब तुम जानोगे
मेरा और धरती का संबंध।
और जब तुम
धरती के मौन में
उसकी पीड़ा सुनोगे,
तब मेरी अनुपस्थिति
तुम्हारे भीतर सबसे अधिक गूँजेगी।
और शायद तब
तुम समझ पाओगे —
गौरैया केवल एक पक्षी नहीं थी,
वह धरती की अंतिम भाषा थी।
यदि सच में चाहो,
तो फिर गूँज सकता है
मेरा चहचहाना —
किसी बच्चे की हँसी में,
किसी खिड़की पर रखे दाने में,
या किसी स्त्री की आँखों के उजास में:
पर उसके लिए
तुम्हें तोड़ना होगा
अपने भीतर का मौन,
त्यागनी होगी
प्रकृति को नियंत्रित करने की ज़िद,
और स्वीकारनी होगी
अपनी सीमाएँ
और अपनी क्षणभंगुरता।
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